SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बराङ्ग H सौधर्मादिषु कल्पेषु संभूय विगतज्वराः। तत्राष्टगुणमैश्वर्यं लभन्ते नात्र संशयः ॥ १२७ ॥ अप्सरोभिश्चिरं रत्वा वैक्रियातनभासुराः । भोगानतिशयान्प्राप्य निश्च्यवन्ते सुरालयात् ॥ १२८॥ हरिभोजोग्रवंशे वा इक्ष्वाकृणां तथान्वये। उत्पद्यैश्वर्यसंयुक्ता ज्वलन्त्यादित्यवद्भुवि ॥ १२९॥ विरक्ताः कामभोगेषु प्रबज्यैवं महाधियः । तपसा दग्धकर्माणो यास्यन्ति परमं पदम् ॥ १३०॥ इत्येतद्यतिना प्रोक्तं दुःखविच्छित्तिकारणम् । ताश्च तद्वचनापास्तशोकाग्रहधियोऽभवन् ॥ १३१॥ अथोत्थाय मुनीन्द्रस्य पादौ नरपतेः स्नुषाः । प्रणम्य जगहः सर्वा व्रतान्युक्तानि शक्तितः॥१३२॥ पञ्चदशः सर्गः बरितम् स्वर्गसुख जब वे यहाँसे मरकर सौधर्म, ऐशान आदि कल्पोंमें जन्म लेते हैं, तो वहाँ उन्हें किसी भी प्रकार दुःख शोक नहीं होता है। इतना ही नहीं अणिमा, महिमा, गरिमा आदि आठ ऋद्धियोंसे सुलभ ऐश्वर्य भी उन्हें प्राप्त होते हैं इसमें थोड़ा सा भी सन्देह नहीं है ॥१७॥ उनकी देह तेजमय तथा वैक्रियक ( जिसे मनचाहे आकारमें बदल सकते हैं तथा जिससे अलग इच्छानुसार आकार धारण कर सकते हैं ) होती है, बड़े लम्बे अरसे तक वे अनुपम सुन्दरो अप्पराओंसे रमण करते हैं, परिपूर्ण भोगों तथा अद्भुत । । अतिशयोंको प्राप्त करके आयुकर्म समाप्त होनेपर ही वे वहाँसे आते हैं ।। १२८ ।। देवायुको समाप्त करके जब वे इस पृथ्वीपर जन्म लेते हैं तो इस लोकके पूज्य हरिवंश, सर्वप्रधान, भोजवंश अथवा उग्रवंश शलाकापुरुषोंकी खान इक्ष्वाकुवंशमें ही उत्पन्न होते हैं । यहाँपर भी उन्हें इतना अधिक ऐश्वर्य और शक्ति प्राप्त होती है कि उसके कारण वे समुद्रान्त वसुधा तलपर सूर्यके समान तपते और प्रकाशित (मान्य) होते हैं ।। १२९ ।। वे भोग उपभोगकी असोम सम्पत्तिसे घिरे रहनेपर भी परम ज्ञानी होते हैं। अतएव कुछ समय बाद उन्हें संसारके विषय-भोग तथा कामवासनासे विरक्ति हो जाती है तो वे स्वैराचार विरोधिनी जिन-दीक्षाको धारण कर लेते हैं। फिर उग्र तपरूपी ज्वालाको प्रदीप्त करके उसमें कर्ममेलको भस्म करके परमपद मोक्षको प्रस्थान कर जाते हैं ।। १३० ॥ रागाग्नि शान्ति मुनिराज यमधरने इस प्रकारसे संक्षेपमें दुःखके समूल नाशके कारणोको समझाया था युवराजकी विरहिणी पत्नियोंने यतिराजके उपदेशरूपो अमृतके प्रभावसे शोक दुःख तथा आत्महत्याकी हठको छोड़ दिया था ॥ १३१ ।। महाराज धर्मसेनकी सब पुत्रवधुओंने उठकर विनयपूर्वक यतिपतिके चरणोंको शान्तचित्तसे प्रणाम किया था। इसके J उपरान्त उन सबने हो अपनी सहनशक्तिके अनुकूल अणुव्रत, गुणव्रत तथा शिक्षाव्रतोंको धारण किया था । १३२ ॥ For Private & Personal Use Only [२७९] www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy