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________________ F देवतातिथिप्रीत्यर्थ मन्त्रौषधिभयाय वा । न हिंस्याः प्राणिनः सर्वे अहिंसा नाम तव्रतम् ॥ ११२ ॥ लोभमोहभयद्वेषैर्मायामानमदेन वा। न कथ्यमन्तं किंचित्तत्सत्यव्रतमुच्यते ॥ ११३ ॥ क्षेत्र पथि कले' वापि स्थितं नष्टं च विस्मृतम् । हार्य न हि परद्रव्यमस्तेयव्रतमुच्यते ॥ ११४॥ स्वसमातृस्वसाप्रख्या द्रष्टव्याः परयोषितः। स्वदारैरेव संतोषः स्वदारव्रतमुच्यते ॥ ११५ ॥ वास्तुक्षेत्रधनं धान्यं पशुप्रेष्यजनादिकम् । परिमाणं कृतं यत्तत्संतोषव्रतमुच्यते ॥ ११६ ॥ बाल पञ्चदशः बराङ्ग चरितम् सर्गः AIRSSIRESTRASTRATPAT - R APATAMARHATARPRASADHE पाँच प्रकारके हैं । गुणवतोंके दिग्वत, देशव्रत तथा अनर्थदण्डत्यागवत ये तीन विभाग हैं तथा शिक्षाव्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिमाण तथा अतिथिसंविभागके भेदसे चार प्रकारका है, इस प्रकार सब व्रतोंको संख्या बारह होती है ॥ १११ ।। अहिंसाको सरल परिभाषा देवताओंको प्रसन्न करके उनकी कृपा प्राप्त करनेके लिए घरपर आये अतिथिका सत्कार करनेके लिए ( वैदिक कथा है कि जब बाल्मीकिके यहाँ विश्वामित्र गये थे तो स्वयं अहिंसक वाल्मोकिने राजर्षिके स्वागतके लिए गाय मरवायी थी। आज। कल भी लोग म्लेच्छ अधिकारियोंकी पार्टीमें 'टिन' मांस आदिको व्यवस्था करते हैं), मन्त्र साधनेको लिप्सासे (सूअर आदि काटना), औषधिरूपसे ( अण्डा, सोरवा एलोपैथ डाक्टर खिलाते हैं । अथवा किसो भयके कारण संसारके किसो भयके कारण संसारके किसी भी प्राणीको नहीं मारना चाहिये । इसे हो अहिंसा अणुव्रत कहते हैं ।। ११२ ॥ सत्यका सरल स्वरूप किसो प्रकारके लोभको प्रेरणासे, किसी विषयके उत्कट मोहके कारण, डराने धमकानेसे, वैमनस्यका प्रतिशोध करनेकी अभिलाषासे, मायाचार या चाटुकारिताके प्रसंगमें, अहंकार या किसी और दम्भके कारण किसी भी प्रकारके असत्यको जिह्वापर न लानेको ही सत्य अणुव्रत कहते हैं ॥ ११३ ॥ अस्तेयका रूप साधारण स्थल या खेतमें, मार्गपर अथवा खलिहानमें रक्खी हुई, प्रमादसे गिरी हुई अथवा भूली हुई किसी भी वस्तुको उसके स्वामीकी स्वीकृतिके बिना न उठानेको ही अस्तेय अणुव्रत कहते हैं ।। ११४ ।। स्वदार-संतोष अपनी विवाहित पत्नीके अतिरिक्त संसारकी सब ही देवियोंको अपनी माता, बहिन तथा बेटोकी श्रेणीमें रखकर देखना, सोचना तथा चर्चा करना, साथ ही साथ अपनी पत्नियों ( पत्नी) से परम संतुष्ट रहनेको स्वदारसन्तोष व्रत कहते हैं ॥ ११५ ।। [२७६ ] परिग्रहपरिमाण महल-मन्दिर-मठ आदि, बगीचा-खेत-जमींदारी आदि, सोना-चाँदो आदि धन, व्यापार आदिकी दृष्टिसे अन्नोंका, १. [कुले ]। २. [ °मातृसुता]। ३. म परिमाणकृतं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org RSARDAREES.. Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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