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वराङ्ग
एकविंशः
चरितम्
नपश्च निर्वतितकार्यनिश्चयः सहासितः प्राज्ञतमैश्च मन्त्रिभिः । विचिन्तया सागरवृद्धिना कृतं नृपाभिषेकाय तदाशि'संमुदा ॥५०॥ निशम्य राज्ञो वचनं वणिक्पतिः प्रसादमात्मन्यवगम्य धीमतः । वणिक्तया दुर्लभतां नृपश्रियो हृदि प्रकुर्वन्निदमभ्यधाद्वचः ॥५१॥ नपाभिषेको नप नः पुरातनैरनाप्तपूर्वः कुलसंततिस्त्वयम् । कूलोचितं मार्गमपोह्य मे पुनर्नवेन मार्गेण गतिर्न शोभते ॥५२॥ अथेवमुक्तश्च समुद्रवृद्धि ना तमनवीन्नान्यदिहोच्यतां त्वया । सुतो नपस्तस्य पिता वणिक्किल इति प्रहास्यं भुवि किं न बुध्यसे ॥ ५३ ॥
सर्गः
राजा वरांगने जिन-जिन कार्योंके करनेका निश्चय किया था उन्हें पूरा कर चुके थे। अतएव एक दिन सुखपूर्वक प्रखर प्रतिभाशाली मंत्रियोंके साथ बैठे हुए मन ही मन उन सब उपकारोंको सोच रहे थे जो उनके ऊपर सेठ सागरवृद्धिने किये थे। उन सबका ध्यान आते ही कृतज्ञता ज्ञापन करनेके एक अवसरको सामने देखकर वे आनन्दसे खिल उठे थे और उन्होंने मंत्रियों की सम्पतिपूर्वक सार्थपतिके राज्याभिषेककी आज्ञा दी थी ।। ५० ॥
उपकारसे अनूर्णता राजाके उदारतापूर्णक प्रस्तावको सुनते हो सार्थपति सागरवृद्धि सरलतापूर्वक यह समझ सके थे कि बुद्धिके अवतार राजा वरांगका उसपर कितना अनुग्रह था। किन्तु वे यह भी जानते थे कि वणिक होनेके कारण वे राज्यलक्ष्मीके उपयुक्त नहीं हैं, इसी विचारको ठीक समझते हुए उन्होंने राजाको उत्तर दिया था ॥५१॥
'हे राजन् ! मेरे वंशमें उत्पन्न हए मेरे किन्हीं भी पूर्वजोंने इसके पहिले कभी भी राज्याभिषेक करानेके सौभाग्यको प्राप्त नहीं किया है। अतएव मेरे कुलमें अनादिकालसे जो परम्परा चली आ रही है उसे त्याग कर मेरी पीढ़ी अर्थात् मैं किसी नूतन मार्ग ( राजा होकर ) से चलू यह मुझे किसो भो अवस्थामें शोभा नहीं देता है ।। ५२ ।।।
सार्थपति सागरवृद्धिके इस बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तरको सुनकर राजा वरांगने आग्रह पूर्वक यही निवेदन किया था 'आप इस विषयमें और अधिक कुछ भी न कहें। थोड़ा सोचिये. जिसका लड़का सर्वमान्य राजा है उसका पिता वणिक है, इस बात A को जो भी इस पृथ्वीपर सुनेगा वहो जी भरके हँसेगा । क्या आप इस ओर ध्यान दे रहे हैं ? ।। ५३ ।। । १.[तदादिशन्मुदा]।
[४१२॥
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