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________________ बराङ्ग चरितम् सुखोपभोगात्सुजनः कुरूपमो धनागमैरप्रतिमैः सदाकरः। प्रदानमानप्रशमोपचारतो विदेहदेशेन समानतां ययौ ॥४६॥ वजास्तु ते ग्रामसमानतां गताः पुरोपमा ग्रामवरास्तदाभवन् । पुरं जहासेव च वज्रिणः पुरं रराज शक्रप्रतिमो महीपतिः ॥ ४७ ॥ पुराकरग्राममडंबपत्तनेष्ववाप वृद्धि क्रमशो जनार्णवः । मुदं महीन्द्रो महतीमवाप्नुवान् पुरात्मसंस्कारितपुण्यकर्मणा ॥ ४८ ॥ ततः स जित्वाम्बधिमेखलां घरां यशोवितानस्थ'गिताम्बरावधिः। सुरेन्द्रवच्चारुमहद्धिशोभितो रराज राजाप्रतिमोरुपौरुषः ॥४९॥ जयमचन्ताRAIL कएविंशः सर्गः MANTRAPARIRAATHAPATRAPATRPHATTPADMRAATRAPAPARAANESH आनर्तपुरके निवासियोंको किसी भी प्रकारके सुखों और भोगोंकी कमी न थी, अतएव वे सब कुरुक्षेत्र ( भोग-भूमि ) के पुरुषोंके समान हुष्ट-पुष्ट तथा सुन्दर थे । उनको सम्पत्ति खानोंसे निकालनेवाली वस्तुओंके समान दिन-दूनी और रात-चोगुनी बढ़ती थी। वे सबके सब दानशील, सत्कार परायण तथा शान्त स्वभावी थे। नगर-निवासियोंकी इन विशेषताओके कारण वह नगर पूर्णरूपसे विदेह देश के समान था ।। ४६ ॥ धामिक राजाका सम्पन्न राज्य ___कृषकों, ग्वालों आदिकी छोटी-छोटी वस्तियां राजा वरांगके उस नूतन राज्यमें ग्रामों को समानता करती थों। धनजनसे परिपूर्ण ग्राम भी नगरतुल्य हो गये थे । और नगरका तो कहना हो क्या, वह अपनी सम्पन्नताके कारण वज्रधारी इन्द्रकी अलकापुरीका भी उपहास करता था ॥ ४७ ।। इन सब सम्पत्तियोंसे घिरा हुआ राजा वरांग मूर्तिमान इन्द्रके सदृश था। नूतन राजाके राज्यके नगरों, आकर ( औद्योगिक नगरों) ग्रामों, मडंब तथा जलमार्गोपर बसे पत्तनोंमें जितने भी नागरिक रहते थे, उस समस्त जनताकी क्रमशः सर्वतोमुखी प्रगति हो रही थी। अथवा यों कह सकते हैं कि राजा वरांग पूर्वभावोंमें आचरित अपने शुभ कर्मोके फलोन्मुख होने 1 के कारण उक्त प्रकारकी समृद्धिका मूल हेतु होकर विशाल आनन्दका उपभोग कर रहा था ।। ४८॥ प्रबल पुरुषार्थी राजा वरांग केवल देश बसा कर ही संतुष्ट न हो गया था अपितु उसने समुद्ररूपी मेखलासे घिरी हुई विशाल भूमिको भी जीता था। उसके यशके विशाल विस्तारने सारे आकाशको व्याप्त कर लिया था। वह स्वयं इन्द्रके समान तेजस्वी तथा सुन्दर था तथा उसका विपुल वैभव भी उसे इन्द्रके समान बनाता था ॥ ४९ ।। ..म स्थनिता। ERSEURSELERS [४११] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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