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________________ वराङ्ग चरितम् एकविंश सर्गः सरांसि शाली जहसुः स्वपङ्कजः विबुद्धपौरिव चारुविनहैः । हियोत्तमालान्यवनम्य शालयः स्थिता इव स्थूलतया चकासिरे ॥ ४२ ॥ क्वचिच्च नार्यः कमलायतेक्षणाः पिधाय कुम्भान्कुमुदोत्पलाम्बुजः। सुमङ्गलायैव कृतप्रसादना'ज्ज्वलत्प्रबभ्रुविलसत्पयोधराः ॥ ४३ ॥ पथिश्रमाः काञ्चनविभ्रमाञ्चिताः प्रसज्य कण्ठे वनिताः स्वयं ययुः। परस्परं ग्रामसहस्रदर्शिनो निपेतुरभ्यर्णतया हि कुक्कुटाः ॥ ४४ ॥ उपद्रवासद्धयदोषवर्जनात्प्रदानमानोत्सवमङ्गलोद्यमात् । प्रभूतभोगार्थविशेषसंपदः कृतार्थतां तत्र जनाश्च मेनिरे ॥ ४५ ॥ नगर समृद्धि विशाल जलाशयोंमें कमल खिले थे उनके बड़े-बड़े सुन्दर पत्ते पूरेके पूरे तालाबोंको ढककर उनकी शोभाको अन्तिम उत्कर्ष तक ले गये थे । फलतः जलाशयोंको देखने पर ऐसा मालूम होता था कि वे अपनी उक्त सम्पत्तिके द्वारा धानके खेतोंकी । हँसी कर रहे हैं । फल सम्पत्तिके भारसे झुके हुए धानके पौधे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों लज्जासे उन्होंने अपने शिर को ही झुका लिया है ॥ ४२॥ कहींपर कुल ललनाएँ कुमुद तथा कमलोंके द्वारा कलशोंके मुखोंको ढककर इसीलिए जल भरकर ले जा रही थीं कि । देखनेवालोंको भी शकुन हो जाये। उनके सुन्दर नेत्र कमलोंके समान बड़े-बड़े थे, कुटिल भ्रकुटियों तथा उन्नत स्तनोंकी रूपलक्ष्मी तो देखते ही बनती थी। ऐसा असीम सौन्दर्य होनेपर भी वे शृंङ्गार भी किये थीं ।। ४३ ।। श्रमिक नागरिक सोने तथा मोती मगाके आभषणोंसे भषित वे सकमारियां मार्ग चलते-चलते थक जाती थीं फलतः आपसमें सहारा लेनेकी इच्छासे वे गले में हाथ डालकर चली जा रही थीं। हजारों ग्रामोंको देखते हुए घूमनेवाले कुर्कुट (पक्षी-पुरुष) एक दूसरेको देखने की अभिलाषासे ही आसपासके अपने स्थानोंको छोड़कर वहाँ जा पहुंचे थे । ४४ ।। ईतभोति नहि व्यापे आनर्तपुर सब प्रकारके उपद्रवोंसे परे था, किसी अनुचित भयको वहाँ स्थान न था, व्यसन आदि दोषोंमें फसनेकी आशंका न थी । वहाँ पर सदा ही दान-महोत्सव, मान-सत्कार तथा विविध उत्सव चलते रहते थे। भोग तथा परिभोगकी प्रचुर सामग्री प्राप्त थी, सम्पत्तिकी तो कोई सीमा ही न थी। इन सब सुविधाओंके कारण बहांके निवासी अपने जन्मको सफल समझते थे ।। ४५ ॥ १. [कृतप्रसाधना जलं]। २.[पथिश्रयाः ] । ३. म कुकुटाः । For Private & Personal Use Only माराममाया ) या READERNMETRIOTSETTES ४१०] Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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