SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 446
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बराङ्ग चरितम् ततः प्रसह्याद्धि समन्वितं नृपः सचामरं विष्टरमुच्छितातपम् । ददो नृपत्वं स समुद्रवृद्धये भवान्विदर्भाधिपतिभवत्विति ॥ ५४॥ समुद्रवृध्यग्रसुताय धीमते ददौ धनाख्याय महीं सकोशलाम् । कलिङ्गाराष्ट्र करिवन्दसंकटं वसूख्तये संप्रददौ कनीयसे ॥ ५५॥ अनन्तनाम्ने स्थिरसत्त्वबुद्धये दिदेश देशं प्रथितं हि पल्लवम्।। सकाशिभूमि विबुधाय मन्त्रिणे सुचित्रसेनाय च वैदिशं तथा ॥ ५६ ॥ अमातिराष्ट्र त्वजिताय संददौ प्रतिप्रधानाय च मालवाह्वयम् । स्वबन्धुशिष्टेष्टजनोपसेवितां यथानुरूपं प्रविभक्तवान्महीम् ॥ ५७ ॥ एकविंशः सर्गः इस प्रकार निवेदन करनेके पश्चात् राजा वरांगने सेठ सागरवृद्धिके विरोधका विचार न करके बलपूर्वक, असीम ऋद्धिसे परिपूर्ण, निर्मल धवल छत्र, चंचल चमर तथा उन्नत महार्घ आसनयुक्त राज्यपदको उन्हें समर्पित कर ही दिया था। संसारके समक्ष ही यह घोषणा कर दी थी 'श्रीमान् राजा सागरवृद्धि आजसे विदर्भ ( वरार ) के राजा हुए' ॥ ५४ ॥ राजा सागरवृद्धिके नीतिनिपुण ज्येष्ठ पुत्र जिनका शुभनाम धनवृद्धि था, उनको आग्रह करके कोशल ( दक्षिण कोशल, वर्तमान महाकोशल-वरार रहित मध्यप्रान्त ) का राज्य दिया था तथा कनिष्ठ पुत्र श्री वसूक्तिको उस कलिंग देशका शासक व नियुक्त किया था जो सदा से अपने मत्त हाथियों के लिए प्रसिद्ध है ।। ५५ ॥ महामंत्री अनन्तसेनको राजा वरांगने सुप्रसिद्ध पल्लवदेवका राजा बनाया था, क्योंकि अपना दृढ़ पराक्रम तथा अटल निश्चय करनेमें सहायक स्थिरबुद्धिके कारण वे इसके लिए सर्वथा उपयुक्त थे। विशेष विद्वान् मंत्रिवर देवसेनको उन्होंने काशोके आसपासका राज्य दिया था तथा राज्यभार धारण करनेके लिए सुयोग्य श्री चित्रसेन मंत्रीको उन्होंने विदिशाके सिंहासन पर बैठाया था ॥ ५६ । TRENA [४१३] बन्धु वत्सलता श्री अजितसेन मंत्रीको अमातिराष्ट्र ( अवन्तिराष्ट्र ? उज्जैन ) का शासन सौंपा था, तथा मालव नामके सुसम्पन्न देशकी प्रधानता प्रतिप्रधानको दी थी। इस प्रकार से राजा वरांगने अपने बन्धु बान्धव, सुयोग्य शिष्ट पुरुष तथा हितेषी आदि इष्ट पुरुषोंके द्वारा सेवित विशाल धरित्रोको अपने बन्धु-मानव तथा प्रेमीजनोंमें उनकी योग्यताके अनुसार बाँट दिया था ।। ५७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy