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________________ R वियोगतापसंतप्ताः काश्चिन्मम्लुः क्षणात्पुनः। काश्चित्प्रकृतितन्वङ्गचश्छिन्नमूला लता इव ॥४४॥ काश्चित्कारुण्ययुक्तानि गीतानि मधुरस्वरः। तद्गणख्यापकान्येव विलेपविविधानि ताः ॥ ४५ ॥ कृतान्त निर्भय क्रूर स्त्रीवधंध्रुवमापवसि। प्रियादस्मान् वियोज्य स्वमित्यूचुः काश्चिदङ्गानाः । ४६ ॥ अस्मान्वा नय तं देशं तमिहानय वा प्रियम् । अन्यथा हि कृतान्तस्ते महापातो भविष्यति ॥ ४७ ॥ एवमाक्रन्दमानास्ताः स्रवदश्रुविलोचनाः। उत्पतन्त्यः पतन्त्यश्च जग्मुः श्वशुरमीक्षितुम् ॥ ४८ ॥ उपगम्यावनीशस्य प्रणिपत्य हि पादयोः। इत्थं विज्ञापयांचाः सर्वा युवनृपाङ्गनाः॥४९॥ R बरान चरितम् पञ्चदशः सर्गः वियोगकी-ज्वालाकी लपटोंसे कुछ राजवधुएँ एक क्षण भरमें ही बिल्कुल मुरझा गयी थी अन्य बहुएँ जो स्वभावसे ही बड़ी सुकुमार तथा दुबली-पतली थीं उनकी वियोगके दुःखपूरके थपेड़ोंसे वही अवस्था हो गयी थी जो सहज सुन्दर तथा मृदुल लताको जड़ें काट देनेपर हो जाती है ।। ४४ ।। राजवधुओंका कण्ठ स्वभावसे ही मधुर था, रोते-रोते उन्हें अपने पतिके अनेक गुण याद आते थे जिन्हें वे अत्यन्त करुण तथा हृदय-विदारक ढंगसे गा, गाकर विलाप करती थीं और उसके गुणोंको स्मरण करके और अधिक दुःख पाती थीं।। ४५॥ उनमेंसे कूछ कुलवधुएँ तो जीवनसे इतनी हताश हो गयी थीं कि वे उद्धत होकर यमराजका सम्बोधन करके कहती थीं-हे कृतान्त ! तुम इतने निर्दय तथा निघृण हो कि तुम्हें निश्चयसे स्त्रीकी हत्याका पाप लगेगा, क्योंकि हम लोगोंको । प्राणनाथसे वियुक्त करके तुमने हमारी मृत्युका आह्वान ही किया है ।। ४६ ।। यदि स्त्री हत्यासे बचना चाहते हो तो या तो हम सबको उस देशमें ले चला जहाँ प्राणनाथको ले गये हो, या उनको हम लोगोंके बीचमें ले आओ । यदि इन दो में से एक भो विकल्प तुम्हें नहीं स्वीकार है तो निश्चय समझो। हे कृतान्त ! तुम्हारे मस्तकपर स्त्री-हत्या ऐसे अधम पातकका टीका लग ही जायगा ।। ४७ ।। पूर्वोक्त प्रकारसे वे रुदन और विलाप करती थीं, उनको आँखोंसे बहतो हुई आँसुओंको नदी उमड़तो ही आती थो, एक क्षण भरके लिए भी उसमें विराम न आता था । विपत्तिका कोई प्रतीकार न देखकर वे अन्तमें ससुरके चरणोंमें गयी थीं, किन्तु मार्ग में भी वे गिर-गिर पड़ती थीं और उठती-पड़ती चली जा रही थीं ॥ ४८ ।। ससुरसे दुःख रोना महाराज धर्मसेनके पास पहुँचते ही वे उनके चरणोंमें गिर पड़ी थीं युवराजके वियोगने उन बधुओंको इतना विह्वल कर दिया था कि राजाके निजी दुःखका ख्याल न करके उन्होंने राजासे निम्न नम्र निवेदन किया था ॥४९ ।। ३४ Jain Education intemational For Private & Personal Use Only IAGEIRHAIRPEAREDEIRE-IIIEIRETRIPETHALALASARLAI [२६५] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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