SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बराङ्ग चरितम् ५१ ॥ ५२ ॥ न्यायविदुष्टनिग्राही धर्मराजः प्रजाहितः । दयावानिति सर्वत्र कीर्तिस्ते विश्रुता भुवि ॥ ५० ॥ अतो वयमिमाः सर्वा अनाथा दीनवृत्तयः । आगताः शरणं त्वद्य बिना चात्मपति प्रभो ॥ दया स्त्रीबालवृद्धेषु कर्त्तव्येत्यधुना जगुः । इति मत्वा महाराज त्वं प्रमाणं क्रियाविधौ ॥ इति नानाविचित्राणि विलपन्त्यो वराङ्गनाः । चुक्रुशुः करुणं घोरं श्वशुरस्यान्तिके स्नुषाः ॥ ततः कञ्चुकिनो वृद्धा अन्तः पुरमहत्तराः । तद्दासीदासभृत्याश्च चक्रराक्रन्दनं महत् ॥ तेषां स्त्रीबालवृद्धानां रुदतां करुणध्वनिः । अभू रेस्प्रक्षुभ्यतोयस्य समुद्रस्येव निस्वनः ॥ ५५ ॥ गुणदेवी स्नुषा दृष्ट्वा स्वपुत्रोत्कण्ठगद्गदा । न शशाक वचो वक्तुं बाष्वव्याकुललोचना ॥ ५६ ॥ ५३ ॥ ५४ ॥ हे पिताजी ! आप न्याय नीतिमें पारंगत हैं, सत्यका पता लगाकर दुष्ट पुरुषोंका कड़ा निग्रह करते हैं, प्रजामात्रका हित करने के लिए अपने आपको भी भूले हुए हैं, दीन और दुखियोंपर जितनी स्वाभाविक दया आपको है उतनी किसीकी हो ही नहीं सकती. यही कारण है कि आपको संसार धर्मराज मानता है तथा आपकी कीति पूर्ण पृथ्वीपर फैल रही हे ॥ ५० ॥ यही विशेषताएँ हैं जो अपके चरणोंमें आज हम सबको ले आयी हैं। हम आपसे शरणकी याचना करती हैं, क्योंकि अपने पति से वियुक्त हो जानेके कारण आज हम अनाथ हो गयी हैं तथा हमारी मानसिक तथा शारीरिक सब ही वृत्तियाँ दीनअवस्था में पहुँच गयी हैं ॥ ५१ ॥ नीतिशास्त्रमें कहा है कि विपत्ति में पड़े बालक, स्त्री तथा वृद्धोंपर सब कार्य छोड़कर दया करनी ही चाहिये । इस नीतिवाक्यको समझकर हे महाराज! आप हो जानें कि हम लोगों के विषय में कौन सा कर्त्तव्य कल्याण कर होगा ।। ५२ ।। जैसा कि पहले कहा है इसी प्रकारके अद्भुत तथा विविध ढंगोंसे वे कुलीन वधुएँ विलाप करती थीं । ससुर के पास पहुँचकर उनके हृदयका बाँध हो टूट गया था इसीलिए वे अत्यन्त करुण तथा घोर चीत्कार कर रही थीं ॥ ५३ ॥ शोक सागर उन शिष्ट कुलीन वधुओं को कलपता देखकर उन लोगों की दासियाँ, कुबड़े, बौने आदि सेवक, अन्य परिचारक, अनुभवी वृद्ध कञ्चुक तथा अन्तःपुरमें नियुक्त महामात्य तथा अन्य लोग भी बुरी तरह चीखने लगे थे। उस समयका आन्द वास्तवमें बहुत विशाल और दारुण था ।। ५४ ।। अपने पर, अवस्था आदिको भूलकर रोनेमें मस्त स्त्रियों, बच्चों तथा बुड्ढोंके कण्ठोंसे निकली करुण ध्वनिका वैसा ही घोरनाद हो रहा था, जैसा कि समुद्र में उस समय होता है जब वह ज्वार-भाटा या आंधी आदिसे क्षुब्ध हो जाता है ।। ५५ ।। पुत्रवियोगसे पागल माता महारानी गुणदेवो अपने पुत्रके वियोगसे यों हो गद्गद हो रही थी, उसपर भी जब सुकुमारो- सुन्दरी बहुओंको उक्त १. क जगी । २. [ । Jain Education International For Private Personal Use Only GARC पञ्चदशः सर्ग: [ २६६ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy