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बसन
तालवन्तानिलहरिमणिभिः पुष्पदामभिः । सुखसंस्पर्शनं चक्रुश्चलदलयपाणयः ॥३८॥ अथोपलब्धसंज्ञास्ता युवराजप्रियाङ्गनाः । विलपन्त्यो रुदन्त्यश्च स्फुरन्त्यश्च समुत्थिताः ॥ ३९॥ निरर्था इव वाङ्माला लता निःकुसुमा इव । युवराजस्य भार्यास्ता भर्तृहोना न रेजिरे ॥ ४० ॥ काश्चिद्धेमजलास्पृष्टा विषण्णकमलाननाः। अश्रुधारां विमुञ्चन्त्यः प्रचेलुदु:खवायुना ॥ ४१ ॥ गण्डदेशे कर न्यस्य विकीर्णासितम्र्धजाः। काश्चिज्जगहिरे भोगान्दुरन्तान्विगतस्पहाः॥४२॥ काश्चिन्म दुपदन्यासैः करै रक्तोत्पलोपमैः। दुःखवेगातिविभ्रान्ता नन्तुः कौशलादिव ॥४३॥
पञ्चदशः
सर्गः
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मूच्छित राजवधुओंको परिचर्या में वे इतनी लोन थीं कि उनके सुकुमार हाथ बिजलीकी तरह वेगसे चल रहे थे। कोई ताड़के पत्तोंके पंखोंसे हवा कर रही थीं, दूसरी शीतल हारों या मणियोंके द्वारा उनके शरीरको छूती थी । फूलकी मालाओंको
मर्मस्थलोंपर लगा रही थी, क्योंकि इन सब वस्तुओंका स्पर्श सुखद और शान्तिप्रद होता है ।। ३८ ॥ म इस प्रकारको परिचर्याके कुछ समय पीछे युवराजको कुलीन प्राण-प्यारियोंको फिरसे संज्ञा ( होश ) वापिस आयी
थी। संज्ञा आते ही उन्होंने हृदयद्रावक रुदन भर विलाप करना प्रारम्भ कर दिया था तथा लड़खड़ाती हुई उठकर बैठ गयी थीं ॥ ३९ ॥
पत्नियोंका शोक-सन्ताप कर्णप्रिय तथा सुन्दर शब्दोंके द्वारा की गयी निर्थरक वाक्यरचना जिस प्रकार आकर्षण हीन होती है तथा जैसे वह लता व्यर्थ होती है जिसपर फूल नहीं आते हैं उसी प्रकार शरीरसे सुन्दर तथा गुणवती युवराजको वही बहुएँ उसके बिना सर्वथा श्रीहीन ही दिखती थीं ॥ ४० ॥
कुछ बहुओंके मुखपर जब शीतल जलके छींटे दिये गये थे, तभी विषादकी तीव्रताके कारण वे विकसित तथा सुन्दर मुख कमलके समान म्लान दिखते थे, आँखोंसे आँसुओंकी धार बह रही तथा दुःखरूपी झंझाके झोकोंसे वह रह-रहकर सिहर उठती थों ( सब हो विशेष लताके रूपकको स्पष्ट करते हैं क्योंकि हिमपातसे फूल मुरझा जाते हैं, ओसका पानी बहने लगता है और हवासे हिलने लगती हैं ॥ ४१ ॥
दूसरी राजवधुओंको संसारसे इतनी प्रबल निराशा हो गयी थी कि हताश होकर उन्होंने हथेलोपर गाल रख लिये थे, कुष्ण कुंचित केशोंके बंधन खुल जानेके कारण वे इधर-उधर फैल गये थे तथा वे अनित्य सांसारिक भोगोंको खूब गर्हणा कर
रही थीं। ४२॥ । अन्य सुकुमार सुन्दरियोंके दुःखकी तीव्रताके कारण मस्तिष्क ही फिर गये थे, वे पागलोंकी तरह अनजाने हो नाचती
थीं, किन्तु उनके चरण सहज कोमल तथा सुन्दर थे, हाथोंकी हथेलियाँ लाल कमलोंके समान सुन्दर तथा आकर्षक थीं फलतः वे । धीरे-धीरे पैर रखकर जब हाथ हिलाती थीं तो ऐसा लगता था कि वे पागल नहीं हैं अपितु कलापूर्वक नाच रही हैं । ४३ ॥
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