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________________ वराङ्ग पुरात्मचरितं कर्म तववश्यमवाप्यते। प्रतिषेद्ध नियन्त वा न शक्यं त्रिदशेरपि ॥ ३२॥ एवं पुत्रवियोगेन मनस्संतापकारिणा। महीपतौ च देव्यां च तद्दुःखं मूर्तितां गतम् ॥ ३३ ॥ भार्यास्त्वनुपमाद्यास्ता विबुधेन्द्राङ्गनोपमाः। वियोगं युवराजस्य श्रुतवन्त्यस्तु तत्रसुः ॥ ३४ ॥ वायुनातिप्रचण्डेन लता इव विकम्पिताः। भर्तृदुःखानिलहता निपेतुर्वसुधातले ॥ ३५॥ ततो वामनिकाः कुब्जा धात्र्यः सपरिचारिकाः । रुदन्त्यस्त्वरयाभ्येत्य सर्वास्ताः परिवतिरे ॥३६॥ अपराश्चेतनावन्त्यः शोतलोदकबिन्दुभिः। गोशीर्षचन्दनाक्तैस्तैः सिषिचः परितोऽजनाः ॥ ३७॥ पञ्चदशः सर्यः चरितम् यसयतमन्न्यमा पूर्वभवमें आत्मा जिन भले बुरे कर्मोको करता है वे कर्म अपने फल-रूपमें उस जीवको अवश्य प्राप्त होते हैं । उसे न तो कोई रोक सकता है और न कोई वशमें ही कर सकता है, मनुष्यको तो शक्ति ही क्या है, देव भी कुछ नहीं कर सकते हैं॥३२॥ इस प्रकार होनहार पुत्रका अकस्मात् वियोग हो जानेसे उत्पन्न दुःखने राजा तथा रानीके गानसिक संतापको उसकी अन्तिम सीमासे भी आगे बढ़ा दिया था। यही कारण था कि वियोगका दुःख राजा-रानीमें साकार हो गया था उन्हें देखते हो ऐसा प्रतीत होता था कि यह प्रौढ़ जोड़ी दुःखको मूर्ति ही है ।। ३३ ।। भारतीय पत्नी युवराज वरांगकी अनुपमा आदि धर्मपत्नियाँ शील तथा स्वभावमें देवोंके अधिपति इन्द्रको इन्द्राणियोंके ही समान थीं। जब उन्हें समाचार मिला कि कोई दुष्ट घोड़ा युवराजको ले भागा है तो वियोगकी कल्पनासे हो वे अथाह भवशोक समुद्रमें डूब गयीं थी ॥ ३४ ॥ स्वभावसे कोमल तथा चञ्चल लताको यदि अत्यन्त प्रचण्ड आँधीके झोंके झकझोर डालें तो जो उसका जो हाल होता है, वही दीनहीन अवस्था; पतिपर पड़े दुःखरूपी आँधीके निर्दय झकोरोंके मारे उन सब सुकुमार बहओंको थीं, वे निढाल होकर 4 पृथ्वीपर आ गिरी थीं ॥ ३५ ॥ इन्हें मूच्छित होकर गिरते देखकर अन्तःपुरमें नियुक्त बौने, कुबडे, धात्रियाँ तथा अन्य सब ही परिचारिकाएँ, जो उस भयानक परिवर्तनके कारण घबड़ा गयी थीं और रो रही थीं, चारों तरफसे दौड़ी और मूच्छित बहुओंको उन्होंने चारों ओरसे घेर लिया था ॥ ३६॥ इस सर्वव्याप्त हड़बड़ीमें भी जिनका विवेक काम कर रहा था उन्होंने बहओंके शिर आदि मर्म स्थानोंपर शीतल जलके छींटे देना प्रारम्भ किया था। गौरोचनके जलसे तथा चन्दनके जल आदि द्वारा सुकुमार स्थानोंको अत्यन्त त्वरा और तत्परता के साथ आर्द्र किया था ॥ ३७॥ १. म निकम्पिताः। २. म सपरिचारकाः । [२६३] Jain Education interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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