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________________ बराङ्ग शनैराप्यायिता देवी उन्मोल्य नयनद्वयम् । हा वत्स क्व गतोऽसीति विविधं विललाप सा ॥ २५ ॥ तवागतात्र या पीडा सा मे किन भविष्यति । वरं मे मरणं वत्स जीवितं किं त्वया विना ॥ २६ ॥ कुण्डलाङ्कितगण्डस्य हारशोभितवक्षसः । तव यद्दर्शनं पुत्र त्रैलोक्यैश्वर्यतोऽधिकम् ॥ २७॥ वत्स हित्वाऽनवद्यानं विद्वज्जननिषेवितम् । कथं स्मरन्ती जोवामि विनयाचारभूषितम् ॥१२॥ चलच्चामरवन्देन ज्वलन्म'कुटशोभया। ज्वलन्तं यौवराज्येन कथं वा विस्मराम्यहम् ॥ २९ ॥ मया वियोजिताः पुत्रा मृगाणामन्यजन्मनि । तत्कर्मपरिणामोऽयं सादृष्टिक मुपस्थितम् ॥ ३०॥ अत्राणाशाश्वतासारा जन्मवत्ता हि देहिनाम् । सा मयाद्य परिज्ञाता जाता नैवास्ति कस्यचित् ॥३१॥ चरितम् । पञ्चदश सर्गः इस प्रकार धीरे-धीरे देवी की चेतना वापस आयो थी। तब उसने दोनों आँखोंको खोलकर'हा वत्स ! कहाँ चले गये हो', आदि वाक्य कहकर भाँति भाँतिका करुण विलाप करना प्रारम्भ कर दिया था ॥ ३५ ।। ___ माताका विलाप 'हे बेटा ! यह दुर्घटना तथा इसके कारण उत्पन्न जो पीड़ा तुम भर रहे होगे वह, हाय दैव ! मुझपर क्यों न आ टूटी। अब तो मेरा मर जाना ही कल्याणकर होगा, हे वत्स ! तुम्हारे विना जीनेसे क्या लाभ ? ।। २६ ।। कुण्डलके चुभनेसे पड़े चिन्ह युक्त तुम्हारे गालका तथा मणिमय हारसे आभूषित तुम्हारे विशाल वक्षस्थलको देखना हो हे पुत्र ! मेरे लिये तीनों लोकों के राज्य की प्राप्तिसे होनेवाली प्रभुता और वैभवसे भी बड़ा सुख था ॥ २७॥ समस्त विद्वान् तुम्हारी सेवा करते थे तुम्हारे सुन्दर स्वस्थ शरीरमें एक भी कमी न थी तथा तुम्हारा आचरण विनय और संयमसे परिपूर्ण था, हा ! मैंने ऐसे एकमात्र सुपुत्रको खो दिया। अब तुम्हें याद करते हुए मैं कैसे जीवित रहूँ ।।२८।। जब तुम्हारा युवराजके पद पर अभिषेक हुआ था तो तुम्हारे सुन्दर विस्तृत मस्तकपर जगमगाता मणिमय मुकुट बाँधा गया, तुम्हारे ऊपर धवल चमर दुर रहे थे। युवराज पदकी प्राप्तिके कारण तुम्हारा वह दैदीप्यमान प्रतापी स्वरूप मैं कैसे भूलू ॥ २९ ॥ मैंने अन्य जन्मोंमें मृगियों और मृगोंसे उनके बच्चोंको दूर किया होगा। यह उसी पापकर्मका साक्षात् तथा समान परिणाम है जो मेरे ऊपर आ पड़ा है ।। ३० ।। इस संसारमें देहधारी जीवोंका जन्म ग्रहण करना कितना रक्षा हीन है, कितना अनित्य है तथा कितना भयंकर एवं सारहीन है, यह मैंने आज भलीभाँति अनुभव कर लिया है। यह दुःखमय अवस्था और किसीकी आजतक नहीं हुई होगी ॥३२॥ १. [ °मुकुट]। २. [ सांदृष्टिक]। ३. [शाता] । RELEASELLERGEमनायमचाचा [२६२] Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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