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वरांग
चरितम्
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सुतदु:खहिमाक्रान्तं मम्लौ वदनपङ्कजम्। तुषाराम्बुसमाक्रान्तं प्रफुल्लमिव पङ्कजम् ॥ १९ ॥ यद्वत्पूर्ण शरच्चन्द्रो निःप्रभो राहुणावृतः । राजेन्द्रो निर्बभौ तावच्छोकग्रहसमाप्लुतः ॥ २० ॥ यथा हृतमणिर्नागो भग्नदन्तो गजोऽपि वा । तथा गतसुतो राजा न रेजे कान्तिमानपि ॥ २१ ॥ एवं दुःखार्णवे मग्ने पत्यो वर्षचरोत्तमाः " । गुणदेव्यै यथावृत्तमुपगम्याचचक्षिरे ॥ २२ ॥ श्रुत्वा पुत्रवियोगं सा देवी बाष्पाकुलेक्षणा । हा पुत्र केन नीतस्त्वमित्युक्त्वा न्यपतद्भुवि ॥ २३ ॥ ततः परिजनैस्तूर्णं शीतलव्यजनानिलैः । चन्दनोदकसंमिश्रैर्गात्रसन्धिषु पस्पृशे ॥ २४ ॥
राजाका विवेक-शोक
पुत्रकी विपत्ति रूपी हिमके पातने सर्वदा विकसित राजाके मुखकमलको भो म्लान कर दिया था। उसके मुखको देखकर उस कमलका स्मरण हो आता था जो थोड़े समय पहिले पूरा खिला था किन्तु तुषारपात होनेके कारण थोड़े समय बाद ही बिखर कर श्रीहीन हो गया था ।। १९ ।।
शरद की पूर्णिमा का पूर्ण चन्द्रमा जिसकी कान्ति सब दिशाओंको शान्त और धवल बना देती है। यदि उसे राहु ग्रह आकर ढक ले तो उसकी जो अवस्था होती है वैसी ही अवस्था महाराज धर्मसेन की पुत्रपर आयो महाविपत्ति की आशंका उत्पन्न शोक के कारण हो गयी थी ॥ २० ॥
जब नागके फण परसे मणि नोंच लिया जाता है, अथवा मदोन्मत्त गजेन्द्रका जब अग्रदन्त तोड़ दिया जाता है तो पूरा शरीर स्वस्थ बलिष्ठ रहने पर भी उनकी शोभा नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार सहज कान्तिमान राजा पुत्रके अपहरणके बाद कान्तिहीन और निस्तेज प्रतीत होता था ।। २१ ।।
अन्तःपुर में समाचार
इस प्रकार महाराजके शोकसागर में डूब जाने पर कोई सर्वश्रेष्ठ प्रतीहार ( साहस करके ) अन्तःपुर को गया था ! वहाँ पहुँचकर उसने इधर क्रीड़ास्थलीसे लेकर अबतक जो युवराज सम्बन्धी दुर्घटनाएं हुईं थीं वे सब क्रमसे महारानी गुणदेवीको सुना दी थीं ।। २२ ।।
इस प्रकार अचानक उपस्थित पुत्रके वियोगकी दुःखमय कथा को सुनते ही माता गुणदेवी की आँखें आँसुओंके वेगसे धुंधली हो गयी थीं। शोक का आवेग इतना प्रबल था कि वे 'हा पुत्र ! तुम्हें कौन ले भागा है', कहकर कटी हुई लता के समान भूमिपर पछाड़ खाकर गिर गयी थीं ॥ २३ ॥
यह देखते ही सेवकजन तथा कुटुम्बी चारों ओरसे दौड़कर आये थे । वे ठंडे पंखोंसे हवा करते थे तथा शरीरके सुकुमार संधि स्थलों पर चन्दनके जलसे मिली शीतल वस्तुओंको लगा रहे थे ॥ २४ ॥
१. [ वषैधरोत्तमाः ]
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पञ्चदशः
सर्गः
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