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बराङ्ग चरितम्
केचिदश्वानुमार्गेण गत्वा दूरं बनान्तरे। वाजिनं तु गतप्राणं कूपेऽपश्यन्तदृच्छया ॥ १३ ॥ युवराजमपश्यन्तो भ्रान्त्वा बननदीगिरीन् । कक्षवृक्षापाकीर्णान् पुरमेव गतास्ततः ॥ १४ ॥ कटकं कटिसूत्रं च केयूरं कुण्डलद्वयम् । अश्वभाण्डं च संगृह्य राज्ञे सर्व निवेदयन् ॥१५॥ श्रुत्वा तेषां वचो राजा दृष्ट्वा तस्यङ्गभषणम् । मुञ्चन्नुष्णं च निःश्वासं दुःखसंभ्रान्तलोचनः॥ १६ ॥ गण्डस्थलं करे न्यस्य सुतं शोचन्मुहमहः। प्रत्युवाच पुनस्तेभ्यः कम्पयन्करपल्लवम् ॥ १७ ॥ कथाकाव्यपुराणेषु अश्वेनापहृता इति । अश्रयन्तमिदं सर्व प्रत्यक्ष समुपस्थितम् ॥ १८ ॥
पञ्चदशः सर्गः
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एक एक स्थल को सूक्ष्मरूपसे देखते थे तथा चिह्न पानेके लिए नाना प्रकारसे परीक्षा करते थे। परन्तु जब उन्हें राजकुमारका पता देने वालो एक भी वस्तु या बात नहीं मिली तो वे निराश होकर लौट आये थे ।।१२।।
जो लोग क्रीड़ास्थल से ही घोड़ेके पीछे दौडे थे वे घोड़ेके पद-चिह्नोंके सहारे जंगलमें बहुत दूरतक चले गये थे। इस प्रकार जंगलमें भटकते हुए उन्होंने किसी वनमें खोजते हुए देखा कि एक कुयेंमें मरा घोड़ा पड़ा था ।। १३ ।।
किन्तु वहाँ उन्हें न तो युवराज ही दिखे थे और न कोई ऐसा चिह्न ही मिला था जो उनके अशुभ को आशंका पैदा # करता। आपाततः वे युवराजकी खोजमें पर्वतों, गहरी नदियों तथा विशाल-जीर्ण वृक्षों, छोटे-छोटे पौधों तथा अगम्य घने वन-- खण्डोंमें व्याप्न अरण्योंमें भटकते रहे थे। अन्तमें असफल होकर वे भी नगर को लौट आये थे ।। १४ ।।
उन्हें अरण्यमें युवराजके कटक, कटिसूत्र ( करधनी ) कानकी लोंगें तथा दोनों कुण्डल भी मिले थे। जिन्हें वे घोड़े के साज तथा अन्य वस्तुओंके साथ वापिस लेते आये थे तथा लौटकर यह सब वस्तुएँ राजाके सामने उपस्थित कर दी थीं तथा । अपना समस्त वृत्तान्त सुना दिया था ॥ १५ ॥
पिताको दुश्चिन्ता घोड़े का पीछा करनेवाले इन स्वामिभक्त अनुयायियोंके वृत्तान्त को सुनकर तथा सामने पड़े युवराजके पैर, हाथ, । आदिके आभूषणोंको देखकर राजा शोक सागरमें डूब गया था। उसके मुखसे उष्ण श्वास निकलती थी, दुःखके आवेगसे आँखें घूम रही थीं ॥ १६ ॥
निराशा और विवशताके कारण अपने बांये गालको हथेली पर रखकर बार-बार पुत्रके लिए शोक करता था । अरण्य से लौटे सच्चे सेवकों को उत्तर देनेके लिए जब उसने हाथ उठाया तो वह कप रहा था तो भी उसने अपने आपको संभालकर
उन्हें उत्तर दिया था ॥१७॥ H कथाओं काव्य-ग्रन्थों तथा पुराणों में हो ऐसे वृत्तान्त सुने थे जिनमें घोड़ोंके द्वारा पुरुषोंके अपहरणकी घटनाएँ भी
थीं। किन्तु जो कुछ अबतक सुना ही था वह सब भाग्यदोषसे आज प्रत्यक्ष हो गया है ॥ १८॥ । १. [ न्यवेदयन् । २. म अधूर्षतमिदं, [ आश्रूयन्त इदं ]।
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TRAPATI
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