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________________ अविरोधः कुतः स्याच्चेदेकपक्षपरिग्रहात् । स पुनः केन चेत्युक्ते नयद्वयपरिग्रहात् ॥ ७५ ॥ [स्याद्वादः खलु पूर्वस्मिन्परस्मिन्नुभयोरपि। उभयोः पादयोर्न स्यादिति केचित्प्रचक्षते |॥७६ ॥ स्याद्वावस्तु विशेषेण सर्वत्र यदि कल्प्यते। अथवा न प्रकल्प्येत दोषस्तस्य प्रसज्यते ॥ ७७॥ कस्तत्र दोष इति चेदेकान्तत्वं प्रसज्यते। एकान्तवादतः किं न लोकयात्रा विनश्यति ॥ ७८ ॥ लोकयात्राप्रसिद्धयर्थं युक्तिवादः प्रकल्प्यते। दृष्टान्तास्तस्य चत्वारस्तैव्यक्तिमभिगच्छति ॥ ७९ ॥ जीवः स स्यान्मनुष्यस्तु नाजीवो मृद्धटस्तथा। सद्व्यमिति सर्वत्र स्याद्वादस्य विकल्पना ॥२०॥ बराङ्ग चरितम् षड्विंशः यदि केवल एक ही नयसे ग्रहीत निरपेक्ष ज्ञानको पूर्ण-स्वरूप मानकर उसी पक्षको ग्रहण किया जाय तो पदार्थ-ज्ञानमें अविरोध कैसे होगा? वह कौन-सा प्रेरक कारण है जिसके द्वारा अविरोधका प्रादुर्भाव होगा? इस प्रकार शंका उत्पन्न होनेपर कहा जा सकता है कि सापेक्ष दो नयोंको माननेसे कार्य चल जायगा ।। ७५ ।। एकान्तापत्ति कुछ लोगोंका यह भी मत है कि स्याद्वाद दृष्टि पहिले नयसे उत्पन्न ज्ञानमें भी रहेगी और दूसरे नयके द्वारा जाने गयेमें भी होगी। फलतः दोनोंके द्वारा पाया गया ज्ञान भी स्याद्वाद ( समन्वय ) मय होगा तथा जो वस्तृज्ञान दोनों नयोंसे नहीं जाना गया है वह ही स्याद्वादसे बाहर जायगा ।। ७६ ।। तात्पर्य यह कि किसी भी दृष्टि अथवा अपेक्षासे प्राप्त ज्ञानके साथ स्याद्वादसूचक 'स्यात्' पद लगा ही रहना चाहिये। इस व्यवस्थामें कोई अपवाद करना सुकर नहीं है। क्योंकि ज्यों ही हमने अपने नय ज्ञानको स्यात् विशेषणसे अलग किया त्यों ही ( एकान्त या हठ-वाद ) भयंकर दोष उत्पन्न हो जाता है ।। ७७ ॥ परिहार प्रतिवादी पूछेगा कौन-सा दोष आता है तो सीधा उत्तर है कि मिथ्यात्वका मूल श्रोत्र एकान्त आ टपकता है । एकान्तवादी कह सकता है इससे क्या हानि है ? तो उससे यही पूछना चाहिये, कि क्या एकान्तवादका प्रश्रय लेनेसे संसार-यात्रा(लोकव्यवहार ) ही समाप्त हो जाती है क्योंकि बहिनके 'भाई' की पत्नी तो 'पति' हो मानती है। जब कि व्यक्ति एक ही है ।। ७८ ॥ संसारमें जितनी भी युक्तियोंका आविष्कार हुआ है तथा उन्हें प्रामाणिक माना जाता है, उन सबका एकमात्र उद्देश्य । यही है कि संसारका व्यवहार निर्दोष रूपसे चलता रहे। इस ही सिद्धान्तको पुष्ट करनेके लिए चार दृष्टान्त प्रसिद्ध हैं, जिनके । द्वारा इसका रहस्य स्पष्ट हो जाता है ।। ७९ ॥ छहों द्रव्योंमें प्रधान द्रव्य जीव है। उसकी सबसे पहिली विशेषता यह है कि वह द्रव्य भी है, वह अजीव मिट्टीके घड़ेके १. म पुस्तक एव। २. म स द्रव्यमिति । मायामाची [५२५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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