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बराज
अस्त्यात्मा स हि कर्ता च ध्रुवो भोक्ता च मुक्तिमान् । अस्त्येव मुक्त्युपायश्च षोढा मिथ्यात्वमुच्यते ॥७॥ नास्त्यकर्ता न भोक्ता च भङ्गुरो न च मुक्तिमान् । नास्त्येव मुक्त्युपायश्च षोढा मिथ्यात्वमुच्यते ॥७१॥ प्रकृतेः पुरुषात्कालात्स्वभावान्नियतेरपि । दैवादीश्वरतश्चापि यदच्छातो विधानतः ॥७२॥ सर्वप्रपञ्चसंसिद्धिरेतेभ्यः संप्रचक्ष्यते । केचिदेकान्ततस्तेषां मिथ्यात्वं न निवर्तते ॥ ७३ ॥ तस्मादेवाहतं युक्तमनेकान्तावलम्बनात् । अविरोधस्तु सर्वत्र सद्भतार्थप्रदर्शनात् ॥ ७४॥
षड्विंशः
चरितम्
सर्गः
AKAAHESHARELATREATMASHTAMA
यालयमय
नय तथा मिथ्यात्व आत्माके अस्तित्वको लेकर भी छह प्रकारका मिथ्यात्व हो सकता है, यथा आत्मा है ही, वहो कर्ता है, आत्मा सर्वथा ध्रुव ही है, आत्मा ही भोक्ता है, ज्ञान, आदि प्राप्त करके इस आत्मा ही को अष्ट कर्मोंसे मुक्ति मिलती है, तथा मोक्ष प्राप्तिके निश्चित उपायोंके विषयमें शंका नहीं ही की जा सकती है ।। ७० ।।
उपयुक्त एकान्तमय वचनोंके विपरीत जब दूसरा नयवादो आत्माके अभावपर ही जोर देता है तो वह निम्नलिखित म छह मिथ्यात्वोंको उत्पन्न करता है। आत्माका अस्तित्व ही नहीं है, किसी भी कार्यका कर्ता हो ही नहीं सकता है, कर्मोंके फल " को भोग ही नहीं सकता है, क्योंकि वह एक क्षणमें ही नष्ट हो जाता है, तथा आत्माको मुक्ति प्राप्ति भी नहीं हो होती है, और न कोई मुक्तिके उपाय ही हैं ।। ७१ ॥
कितने ही ऐसे विचारक हैं जो पूर्वापर विरोधको चिन्ता न करके यही कहते हैं कि संसारका समस्त प्रपञ्च प्रकृतिकी । कृपा से हो जाता है, अथवा पुरुषका साक्षी होना ही जगत् प्रपंचका कारण है, तोसरोंका कथन है कि प्रकृति पुरुष आदि कुछ
भी नहीं हैं समय हो सब कुछ करता है, कुछ लोगोंका मत है इससे भो आगे हैं, वे कहते हैं कि जगत्का स्वभाव ही इस प्रकार है ।। ७२॥
प्रकृति पुरुष पांचवें कहते हैं कि जगत् प्रपंचका होना तथा मिटना पूर्वनिश्चित (नियति ) है, दूसरोंका मत है कि पूर्वोक्त कोई बात नहीं है, केवल दैव ही संसारकी सृष्टिके लिये उत्तरदायी है, सातवें पक्षके समर्थक और भी अकर्मण्य हैं क्योंकि वे ईश्वरको जगत् सृष्टा कहते हैं, अन्य लोग इससे भी एक पग आगे गये हैं क्योंकि उनके मतसे ईश्वरकी अनियंत्रित इच्छा ही संसारको उत्पन्न कर देती है-तथा नौवें पथवादी कहते हैं कि कि ( यतः) ऐसा होना अनिवार्य (विधान ) था इसीलिये सृष्टि हो गयी है । इस ढंग के अनेक कारणोंको नयवादी लोग संसार सृष्टिका कारण मानते हैं। उनका मिथ्याज्ञान इतना दृढ़ हो गया कि युक्तिवाद उसे सरलतासे दूर नहीं कर पाता है ।। ७३ ॥
इन सब मतोंकी परीक्षा करनेके उपरान्त यहो निष्कर्ष निकलता है कि श्री अर्हन्त केवलीके द्वारा कहा गया, वस्तुके १ अनेक धर्मोका विचारक तथा स्याद्वादमय अनेकान्त ही सत्य है, क्योंकि उसका अवलम्बन करनेसे कहीं भी कोई विरोध नहीं 1 आता है। इतना ही नहीं, अपितु पदार्थ जैसा है उसके उसी स्वरूपका ज्ञान भी प्राप्त होता है ।। ७४ ।।
SHAIRAPATIALAMINE
-RLIARPURISORRERSE
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