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[ब्रव्यार्थिकस्य यः कर्ता स एव फलमश्नुते । पर्यायार्थिकयस्यान्यः' कर्ता भोक्ता तथापरः] ॥ ६५ ॥ तस्मात्सर्वप्रपञ्चोऽयं लोकयात्रासमन्वितः । नययोरनयोर्भेदान्न संभवति यक्तिभिः ॥६६॥ गुणप्रधानभावेन यदा त्वेतौ परस्परम् । अपेक्षेते तदा तत्त्वं भजतो' भजनाधितौ ॥ ६७॥ अयमेव महापन्याः पुंसां निःश्रेयसाथिनाम् । अविरोधात्ततोऽन्यस्तु मिथ्यात्वप्रतिपादकः ॥ ६८॥ यावन्तो वचसा मार्गा नयास्तावन्त एव हि। तावन्ति परतीर्थानि यावन्तो नयगोचराः॥ ६९॥
षडविंश
विशद विवेचन दूसरे शब्दोंमें यों कह सकते हैं कि द्रव्याथिक नयके अनुसार जो कर्ता है वही अपने कर्मोके परिणाम (फल ) को भरता भी है । किन्तु पर्यायाथिक नयको व्यवस्था इसके बिल्कुल प्रतिकूल है, उसकी दृष्टि में जिस पर्यायमें कार्य किया गया था वह बहुत शीघ्र ( प्रतिक्षण ) बदल जाती है । फलतः जो रूप कर्मोंका कर्ता है वही भोक्ता नहीं होता है ।। ६५ ॥
संसारके व्यवहारोंको चलानेमें अति उपयोगी उक्त प्रकारका सबका सब एकांगी ज्ञान द्रव्यार्थिक तथा पर्यायाथिक नयोंके भेदोंके द्वारा तब तक हो सुचारु रूपसे चलता है जब तक ये सब नय परस्पर सापेक्ष हैं। ज्योंहो ये परस्पर निरपेक्ष हो जायगे, त्यों ही उक्त समस्त प्रपंच तर्ककी कसौटी पर कसते हो मिथ्या सिद्ध होंगे ।। ६६ ।।
किन्तु जिस समय इन दोनों नयोंमेंसे एक प्रधान हो जाता है तथा दूसरा अप्रधान (गौण ) हो जाता है उस समय ये परस्पर विरोधी न होकर एक दूसरेके पूरक हो जाते हैं। उस समय इनके द्वारा दिया गया आंशिक ज्ञान तत्त्व-ज्ञान होता है है क्योंकि पदार्थोंको जाननेका यही प्रकार है ।। ६७ ॥
जो पुरुष तत्त्वज्ञान प्राप्त करके परम निश्रेयस ( मोक्ष) को प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिए स्याद्वादमय पदार्थपरीक्षा ही एकमात्र सीधा, सरल मार्ग है, क्योंकि इस पर चलनेसे पदार्थोंमें प्रतीत होनेवाला विरोध अपने आप ही लुप्त हो जाता है। इसके सिवा जितने भी एकान्तमय मार्ग हैं वे पदार्थकी अनेक धर्म-पूर्णताको उपेक्षा करनेके कारण सत्य मार्ग नहीं कहे जा सकते हैं ।। ६८॥
सत्य तो यह है कि नयोंकी संख्याका निश्चित प्रमाण ( संख्या ) कहा ही नहीं जा सकता है, क्योंकि प्राणी जितने प्रकारसे शब्दों द्वारा अपने भावोंको प्रकट कर सकता है उतने हो नय होते हैं । जब कोई विचारक किसी एक ही नयके विषयको लेकर उसे हो पदार्थका सत्य या पूर्ण, स्वरूप मानने लगता है तो वह मिथ्या-मार्ग हो जाता है। आपाततः जितने नय हैं, मिथ्या मार्गोंकी संख्या भी उतनी ही हो सकती है ॥ ६९ ॥ १. क पुस्तक एव। २. क भजते ।
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