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________________ बराङ्ग चरितस् म प्रायेण प्राणिनो दुःखं सुखमत्यल्पमुच्यते । संस्काराः क्षणिकाः सर्वे भगुराः प्रियसंगमाः ॥ ७५ ॥ यौवनं बाधते नृणामैश्वयं त्वनवस्थितम् । आयुर्वायुविनिधूं ततृणलग्नाम्बुचञ्चलम् ॥ ७६ ॥ प्रीतिः सन्ध्याम्बुदाभेव संपदो विद्युता समाः । नानारूपा रुजस्तीव्रास्तनवः फेनदुर्बलाः ॥ ७७ ॥ करण माता पिता कस्य कस्य भार्या सुतोऽपि वा । जातौ जातौ हि जीवानां भविष्यन्ति परे परे ॥७८॥ आत्मैव चात्मनो बन्धुरात्मा चैवात्मनो रिपुः । आत्मनोपार्जितं कर्म चात्मनैवानुभुज्यते ॥ ७९ ॥ प्रीतिपूर्वं कृतं पापं मनोवाक्कायकर्मभिः । न निवारयितुं शक्यं संहितैस्त्रिदशैरपि ॥ ८० ॥ गये हैं अतएव उनके रागके रंगमें रंगे हृदयोंको शान्त तथा स्वच्छ एवं स्थिर करनेके लिए उन्होंने मधुर वाणी से समझाना प्रारम्भ किया था ॥ ७४ ॥ प्रायः करके संसारमें जीव दुःख ही सदा भरते हैं सुख तो इतना कम है कि कभी-कभी प्राप्त होता है । पर सुख दुःख ही क्या, सब ही संस्कार क्षणिक हैं आपाततः प्राणप्रिय जनोंका समागम ही कैसे नित्य हो सकता है ? वह भी अन्य संस्कारोंकी भाँति नष्ट होता ही है ॥ ७५ ॥ जिसका उभार आनेपर मनुष्य अपनेको सब कुछ समझता है उसी यौवनको कुछ समय बाद रोग, बुढ़ापा आदि जरजर कर देते हैं, जिसका अभिमानरूपी नशा मद्यसे भी भयंकर होता है उस वैभवकी चंचलता कौन नहीं जानता ? कौन नहीं देखता है कि यह जीवन उस ओसकी बूँदके समान हैं जो वायुके झोकोंसे हिलते दूबके तिनके पर जमा रहता है ॥ ७६ ॥ प्रीति के रहस्य को समझना है तो सन्ध्या समय बादलोंकी मनमोहक लालिमापर दृष्टि डालो, सम्पत्तिके स्वरूपको आकाश कौंधनेवाली विद्युत रेखा ही साक्षात् दिखा देती है। रोगों के भेदों तथा उनकी कष्ट देनेकी सामर्थ्यको पूर्णरूपसे बताना असंभव है तथा जिस शरोरमें यह रोग उत्पन्न होते हैं वह पानोके बुदबुदेसे भी दुर्बल है ॥ ७७ ॥ कौन किसकी माता है ? कौन किसका पिता है ? किसकी कौन जीवनसहचरी है ? तथा कौन किसका पुत्र हो सकता हैं ? अरे ! यह सब जन्म-जन्म में बदलते जाते हैं तथा नये नये जीव यह स्थान ग्रहण करते रहते हैं ॥ ७८ ॥ तथ्य तो यह है कि आत्मा ही स्वयं अपना परमहितैषी बन्धु है । तथा आत्मा ही अपने आपका दारुण शत्रु है। आत्मा स्वयं जिन शुभ अशुभ कर्मोंको करता है उन सबके भले बुरे परिणामको भी वही भरता है ।। ७९ ।। यदि कोई आत्मा अभिरुचिपूर्वक मन, वचन तथा कायसे किसी पापको करता है तो वह उसके परिपाक होनेपर उदयमें आगे उसके फलको नहीं रोक सकता, साधारण आत्माकी तो शक्ति हो क्या है; यदि समस्त देव लोग भी इकट्ठे होकर प्रयत्न करें तो वे भी नहीं रोक सकते हैं ।। ८० ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only पञ्चदशः सर्गः [ २७० ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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