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________________ करोषि यदि मद्वाक्यं धर्मे धत्स्वात्मनो मतिम् । शनैरेव महाम्भोधि तारयत्यापदार्णवम् ॥ ६९॥ इत्युक्ता भूभुजा साध्वी श्वशुरं धर्मवत्सलम् । यस्त्वया शिष्यते धर्मः स एवोपास्यते मया ॥७॥ इति तस्या वचः श्रुत्वा नरेन्द्रः प्रीतमानसः'। स्नुषाशोकविनाशाय साधनामन्तिकं ययौ ॥ ७१ ॥ राजा ताभिः समाश्रित्य शान्तं यमधरं मुनिम् । परिक्रम्य प्रणम्यैवं प्रोवाच विनयान्वितः॥७२॥ युवराजवियोगेन दुःप्रतिज्ञास्ववस्थिताः। एतासां बुद्धिमास्थाप्य सद्धमं प्रतिपादय ॥७३॥ ततो मुनिपतिस्तासां शोकनिष्टप्तचेतसाम् । वक्तुं मनःप्रसादाय प्रारब्धो मधुरा गिरा ॥ ७४ ॥ पञ्चदशः परितम् सर्गः SHISIO-ममन्यमानाम - अतएव यदि बेटी मेरा कहना मानो तो वीतराग सर्वज्ञ प्रभुके द्वारा उपदिष्ट धर्मके आचरणमें मन तथा शरीरको लगाओ। वीतराग तीर्थंकरोंका जैनधर्म ही नौकाके समान अपने आश्रितोंको आपत्तिरूपी महासमुद्रके पार ले जाता है ।। ६९ ॥ धर्म ही शरण है धर्मनिष्ठ राजाके द्वारा उक्त प्रकारसे ढाढस दिलाये जानेपर सती साध्वी अनुपमाने अपने धर्मवत्सल ससुरसे सविनय । इतना ही निवेदन किया था-'हे पिताजी ! आप जिस धर्मपर श्रद्धा करनेको कह रहे हैं मेरे द्वारा भी मन, वचन, कायसे उसी धर्मको उपासना की जाती है ।। ७० ॥ प्रधान पुत्रवधू अनुपमा देवीके उत्तरको सुन कर राजा मन हो मन अपनी बहूकी योग्यतापर बड़े प्रसन्न हुए थे । अतएव अपनी नवोढा पुत्रवधुओंके वियोगजन्य शोककी ज्वालाको शान्त करनेके अभिप्रायसे हो वे विषयनिलिप्त निम्रन्थ साधुओंकी सेवामें गये थे।। ७१॥ धर्मो रक्षति रक्षितः सब पुत्रवधुओंको साथ लेकर महाराज धर्मसेन मुनिराज यमधरके चरणोंमें पहुंचे थे, जो परमशान्त योगी थे। पहुंचते ही अपने कुटुम्बके साथ महाराजने उनकी तीन प्रदक्षिणा की थीं तथा साष्टांग प्रणाम करनेके उपरान्त पूर्ण विनयपूर्वक महाराजसे निवेदन किया था ॥७२॥ 'हे गुरुवर ! एक दुष्ट घोड़ा युवराज वरांगको किसी अज्ञात दिशामें ले गया है अतएव अपने पतिके वियोगसे विह्वल होकर मेरी पुत्रवधुएँ शास्त्रके विरुद्ध कुप्रतिज्ञाएँ करके उन्हें पूर्ण ( आत्मवध ) करनेपर तुली हैं। आप अनुग्रह करके इनमें सन्मति कर इन्हें वीतरागधर्मका उपदेश दीजिये' ।। ७३ ।। विवेक दृष्टि ' 'मुनिवरने देखा कि राजपुत्रकी सब बहुओंके चित्त शोककी ज्वालामें तप कर कर्त्तव्य तथा अकर्तव्यके ज्ञानसे हीन हो । DRETIREMAITR-RHIRGETमान्य [२६९) १. म प्रीति । २.कदुःप्रतिज्ञाः । Jain Education interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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