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________________ TRAAHIR वराङ्ग राजा निशम्य तद्वाक्यं द्विगुणं दुःखविद्रुतः। क्षरन्नेत्रोदकास्यः प्रत्युवाच ततः स्नुषाम् ॥ ६३ ।। मैवं स्वनुपमे मंस्थास्तदत्यन्तमशोभनम् । असंमतं च साधूनां पुनर्दु:खाय कल्प्यते ॥ ६४ ॥ शस्त्ररज्ज्वादिघातश्च मण्डलेन च साधनम् । भृगुप्रपतनं चैव जलवह्विप्रवेशनम् ॥ ६५॥ देहत्यागश्च गृध्रेभ्यो जिह्वोत्पाटविषाशनम् । एतानि मरणान्यानिषिद्धानि महात्मभिः ।। ६६ ॥ निःशोला निर्नमस्कारा निर्वता निर्गणा नराः। जरामरणरोगार्ताः क्लिश्यन्तीति विनिश्चिनु ॥६७॥ त्रिलोकगरवोऽर्हन्तः सर्वज्ञास्तत्त्वशिनः । ते पवित्रं च मामुल्यं मत्कुलस्य ममापि च ॥६॥ पञ्चदशः चरितम् सर्गः ATRAPATHAPATRAPATHPURPATRASTHAARAमा "प्रवाह रेवावधर्यते ___ इस हताशापूर्ण निश्चयको सुनते ही राजाका पुत्रवियोगसे उत्पन्न दुःख दुगुना हो गया था, शोकके आवेगसे वे पिघलसे उठे थे, अतएव उनके ऐसे स्वभावसे ही धीर गम्भोर व्यक्तिका मब भो अश्रुधारासे भीग गया था तथापि हृदयको कड़ा करके उन्होंने पुत्रवधुओंको समझाया था ।। ६३ ।। 'बेटी अनुपमा ! तुम इस प्रकारको बात सोचो भी मत, आत्महत्या अत्यन्त अशोभन कार्य है, इसीलिए पुराण, आचार्यों तथा साधु पुरुषोंने इसको करनेका उपदेश नहीं दिया है, अपितु तीव्रतम विरोध किया है । क्योंकि ऐसा करनेसे इस भवमें आ पड़ी। विपत्तिका भी उपशम नहीं होता है, इतना ही नहीं भव-भवके दुःख बढ़ते हैं ।। ६४ ।। आत्महत्या हिंसा है। किसी हथियारसे गला आदि काटकर मृत्युको बुलाना, गलेमें रस्सोकी पांश डालकर प्राण त्याग देना, तलवार या भालेकी नोकपर गिरकर, शरीरको वेधकर, पहाड़के उन्नत शिखरपरसे गिरना, पानीमें डूब कर मरना ।। ६५ ॥ लपलपाती आगकी ज्वालामें कूदकर प्राण दे देना, जंगल आदि एकान्त स्थानमें जाकर पड़ जाना और अपनी देहको । गीध, चील, आदि पंछियोंसे नुचवाकर त्याग देना, जिह्वा काटकर फेंक देना तथा विष खा कर प्राण त्यागना इन सब आत्महत्याके उपायोंका जगत्-पूज्य श्रेष्ठ महात्माओंने निषेध किया है ।। ६६ ।। हे पुत्रि ! जो सच्चे देव, शास्त्र तथा गुरुकी नति नहीं करते हैं, व्रतोंसे दूर भागते हैं, गुणोंको गर्हणा करते हैं, शील सदाचारसे जिनकी भेंट भी नहीं है तथा रोगों, बुढ़ौती तथा मृत्युसे जो सदा आक्रान्त रहते हैं, ऐसे अज्ञानी लोग हो उक्त ढंगोंसे । अपने प्राणोंका विध्वंस करते हैं ।। ६७ ॥ किन्तु तुम जानती हो हो कि श्री अर्हन्त परमेष्ठी अपनी विशाल तपस्या, सर्वांग ज्ञान तथा लोकवात्सल्यके कारण ! [२६८) तीनों लोकोंके पथ प्रदर्शक गुरु हैं क्योंकि वे समस्त तत्त्वोंके साक्षात् द्रष्टा हैं, सर्वज्ञ हैं। उनका ही आदर्श मेरे कुल तथा मेरी । ही दृष्टिमें पवित्र है तथा कल्याणकारी है ॥ ६८ ॥ १. [कल्पते । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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