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वराङ्ग चरितम्
बन्धभि त्यमित्रैर्वा मन्त्रोपायबलैरपि । वित्तैर्वात्मकृतं पापं तदशक्यमसेवितुम्॥८१॥ यद्यद्विनिर्मितं कर्म येन येनान्यकर्मणि'। तस्य तस्यानुमार्गेण तदिहागत्य तिष्ठति ॥ ८२॥ अज्ञानावृतचित्तानां रागद्वेषवतां नृणाम् । क्षणवद्वद्धिमाप्नोति तत्कर्म यदनेकधा ॥८३ ॥ तीव्रमध्यममन्दैस्तु परिणामप्रपञ्चनैः। तीव्रमध्यममन्दं तत्फलमात्मा समश्नुते ॥ ८४ ॥ हिंस्यन्ते हिंसकाः पापैरापद्यन्तेऽपवादकाः। मुष्यन्ते मोषकास्त्वन्यैविलुप्यन्ते विलोपकाः ॥ ८५॥ बध्यन्ते बन्धकास्तीत रुध्यन्ते रोधकाः पुनः । बाधकास्तु विबाध्यन्ते विष्यन्ते द्वेषकारिणः ॥८६॥
पञ्चदशः सर्गः
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बन्धु बान्धवोंको सहायताके द्वारा, सेवकों और मित्रोंके बलसे, मन्त्रोंका शक्ति या अन्य योजनाओंके चमत्कारके कारण अथवा असंख्य संपत्तिके बलपर भी कोई व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता है कि उसे पूर्वकृत कर्मका फल न भोगना पड़े।। ८१ ।।
कर्म हो विधाता है पूर्वजन्ममें जो जो भले बरे कार्य जिस जिस शुभ या अशुभ द्वारसे किये जाते हैं उन उन समस्त कर्मोंके फल उत्तरकालमें उन उन व्यक्तियों या उन्हों व्यक्तियों के द्वारा ही प्राप्त होते हैं ।। ८२ ॥
किन्तु जिन प्राणियोंके चित्तोंको अज्ञानरूपी अन्धकारने घेर लिया है, जिन व्यक्तियोंकी प्रकृति राग तथा द्वेषसे व्याप्त है, उनके लिए ही क्षणके समान अल्पकालीन पाप कर्मोंका फल अनन्तकालके समान अनेक रूपों द्वारा बढ़ता है ।। ८३ ।।
साधारणतया जीवोंके परिणाम तोव्र, मध्यम तथा मन्दके भेदसे तीन ही प्रकारके होते हैं, फलतः इन आधारोंके अनुसार ही पापकर्मोंका फल भी आत्माको क्रमशः तीव्र, मध्यम तथा मन्द सुख दुःख आदिका अनुभव कराता है ।। ८४ ।।
कानके लिए कान जो स्वयं हिंसा करते हैं वे दूसरे पापो हिंसकोंके द्वारा मारे जाते हैं। दूसरोंको बुराई करनेमें हो जिन्हें सुख मिलता है। उनकी भो दूसरे खूब बुराई करते हैं । चोरोंको भी उनसे अधिक बलवान् लूट लेते हैं, जो दूसरोंकी धरोहरें लुप्त कर देते हैं अन्य। लोग उनके साथ भी वैसा ही करते हैं ।। ८५ ॥
दूसरोंको बन्धनमें डालनेवाले स्वयं भी बन्धनके तीव्रतम दुःख नहते हैं, अन्य पुरुषोंको गतिविधिमें बाधा देनेवालोंको अलंध्य बाधाओंका सामना करना पड़ता है ।। ८३ ।।
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॥ १. म तदशक्यं निषेषितु।
२. [ येनान्यजन्मनि ] |
३. के पापैरुपाद्यन्ते, [पापैरपाद्यन्ते । For Private & Personal Use Only
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