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बराम
दण्डयन्ते दण्डका दण्डैः शुच्यन्ते शोचकारिणः । वञ्चकास्तु प्रवञ्च्यन्ते वियुज्यन्ते वियोजकाः ॥७॥ सायं पादपमभ्येत्य निशायां तु सहोषिताः। इतोऽमुतः प्रभाते तु यथा गच्छन्ति पक्षिणः ॥८॥ तथा कुलतरुं प्राप्य मा दुरितवृत्तयः। सहोषित्वा पुनर्यान्ति 'स्वकर्मवतवम॑ना ॥ ८९ ॥ यथा नावं समारुह्य व्यतीत्य' कुलदुर्गमम् । स्वभाण्डमथ विक्रेतु भ्रमन्ति नगराकरान् ॥ ९०॥ तथा कर्मपथारूढाः प्राणिनो दुःखभाजिनः । पापभाण्डं च विक्रेतु व्रजन्तीह 'चतुर्गतीः ॥ ९१॥ यथा पतन्ति पर्णानि प्रकीर्णानि महीतले । संचीयन्तेऽनिलैकेन वियुज्यन्तेऽपरेण च ॥ ९२ ॥
पञ्चदशः सर्गः
चरितम्
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जिनका व्यवसाय दण्ड देना है उनपर भीषण दण्ड लगाये जाते हैं, बिना कारण हो दूसरोंको रुलानेवाले स्वयं भो । शोकमें घुल घलकर रोते मरते हैं, क्या संसारके कुटिल ठग दूसरोंसे नहीं ठगे जाते हैं कौन ऐसा व्यक्ति हैं जो दूसरोंको विरह
ह्निमें झोंककर स्वयं उससे अछूता रह गया हो, दूसरोंको घेरकर लूट खसोट करनेवाला कौन ऐसा है जो स्वयं घेरेमें न पड़ा हो, # संसार भरसे द्वेष करके कौन व्यक्ति किसीका प्रेम पा सका है ।। ८७ ।।
दुनिया रैन बसेरा सन्ध्याके समय अनेक दिशाओं और देशोंसे उड़कर पक्षी किसी वृक्षपर पहुंचते हैं, रात भर सब एक साथ वहीं निवास करते हैं किन्तु प्रातःकाल अरुणोदय होते हो वे इधर उधर अपने अपने मार्गोपर चले जाते हैं। क्या संसार समागमको यही अवस्था नहीं है ।। ८८ ॥
वैभाविक परिणतिको प्रेरणासे दुष्कर्मों में लगे प्राणी पक्षियोंके समान ही किसी कुटुम्ब रूपी वृक्षका आश्रय लेते हैं, कुछ समय तक साथ साथ रहते हैं किन्तु अपने अपने कर्मोंके उदय होनेपर कर्मोंके द्वारा बनाये गये मार्गोपर चले जाते हैं ॥८९॥
__जैसे बहुतसे विभिन्न देशोंसे आगत यात्री एक ही नावपर सवार होकर कठिनतासे पार करने योग्य धारा या जलाशयको पार करते हैं, दूसरे किनारे पर उतरते हो वे अपनी अपनी सामग्रीको बेचनेके लिए अलग अलग अनेक नगरों तथा आकरोंको चले जाते हैं ॥ ९ ॥
इसी प्रकार दुःखोंकी सत्तारूपो भारसे लदकर कर्मरूपो महामार्गपर चलनेवाले समस्त जीव भो अपने पापोंके भारको बेचनेके लिए ( उदयमें लाकर निर्जरा करनेके लिए ) इस संसारकी चारों गतियोंमें घूमते हैं ।। ९१ ॥
पतझड़का समय आनेपर वृक्षोंके पत्ते अपने आप इधर उधर गिर जाते हैं, फिर वसन्तकी समीरका एक झोंका आता है, उन सब पत्रोंका एक ढेर कर देता है, थोड़ी देर बाद दूसरा आता है और न जाने उन्हें किधर किधर बिखेर देता है ॥९२॥
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१. म स्वकर्मकृत।
२.क व्यतीतकुल।
३.म विक्रीतु। ४. म च दुर्गतीः ।
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