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________________ बराङ्ग तथा जीवाः समुद्धताः प्रकीर्णा हि महीतले। चोयन्ते कर्मणैकेन नीयन्ते स्वपरेण च ॥१३॥ यथोदितस्य सूर्यस्य ध्र पतनमग्रतः । प्रदीप्तस्य प्रदीपस्य चोपशान्तिर्यथोदिता ॥१४॥ यथा नभसि मेघानां विलयः पुरतः स्थितः। तथा जातस्य जीवस्य मरणं ध्रुवमग्रतः ॥१५॥ पार्थिवाः खेचराश्चैव केशवाश्चक्रवर्तिनः। मानवा ब्रह्मरुद्राश्च योगसिद्धा दमेश्वराः ॥९६॥ इन्द्राश्च चन्द्रसूर्याख्या' लोकपालास्त्वनी किनः । पतन्ति स्वेषु कालेषु त्राता कश्चिन्न विद्यते ॥९७॥ यथैव मत्तमातङ्गः प्रविश्य कदलीवनम् । पाद दन्तकराग्रेश्च प्रमद्नाति महमहः ॥९॥ पञ्चदशः सर्गः चरितम् सांसारिक समागम भी ऐसे ही हैं, अनादिकालसे वर्तमान जीव-लोकमें जीव इधर उधर सब स्थानोंपर व्याप्त हैं। । । किसी एक कर्मका थपेड़ा उन्हें एक कुल, पुरा, नगर, देश आदिमें इकट्ठा कर देता है, किन्तु दूसरा उन्हें यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखेर देता है ।। ९३ ॥ अवनति ही निश्चित है यह ध्रुव सत्य है कि जो सूर्य प्रातःकाल उदित होकर सारे संसारको आँखें अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है वह | मध्याह्नको पूर्ण प्रतापो होकर आगे सन्ध्या तक पहुँचते-पहुंचते अस्त हो जाता है । जो दीपक जलाये जानेपर आसपासके स्थलको आलोकित कर देता है वह भी अन्त समय आनेपर बुझ हो जाता है ।। ९४ ।। आकाशमें मेघोंके एकसे एक उत्तम आकार बनते हैं, किन्तु वे देखते-देखते हो विलीन हो जाते हैं इसी प्रकार जो जीव जन्म लेकर प्रकट हुआ है वह आयु समाप्त होनेपर मृत्युके कारण अवश्य हो कहों लीन हो जायेगा ।। ९५ ।। मृत्युमें आश्चर्य नहीं परम प्रतापी राजा लोग, अलौकिक विद्याओंके अधिपति खेचर, अनन्त प्रभावशाली नारायण (राम, बलभद्रादि), भरत, आदि पट्खंड विजयी चक्रवर्ती, शलाका पुरुष, रुद्र ( शिव, द्वोपायनादि ) यौगिक सिद्धियोंके अधिष्ठाता तांत्रिक मांत्रिक ।। ९६ ॥ इन्द्रिय निग्रही परम तपस्वी, सोलह स्वर्गों के इन्द, परम उद्योतमान चन्द्रमा और सूर्य, यम, वरुण, कुबेर आदि लोकपाल तथा लक्ष्मण अर्जुनके समान महासेनापति भो जब आयुकर्म समाप्त हो गया तो ये सब क्षुद्र कीटको तरह मृत्युके मुखमें पड़े। कोई भी शक्ति उनको रक्षा नहीं कर सकी ।। ९७ ।। आयुकर्मको बलबत्ता जैसे कोई मदोन्मत्त हाथी किसी कदली वनमें घुस जावे तो वह बिना किसी संकोचके जिधर भी बढ़ता है उधर ही केलेके पेड़ोंको पैरोंसे कुचलकर, दाँतोंसे फाड़कर तथा सूडसे मरोड़कर बार-बार मसलता है ।। ९८।। १. म सूर्याख्यो। २.क पाददण्ड । Jain Education international३५ For Private & Personal Use Only PARASIRAHARASpee-aur-Sure- se-premem RELATESPEASANSARITALIRDARSHESHARIRST [२७३] arpan www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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