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बराङ्ग
चरितम्
सप्तमः सर्गः
महेन'नीले रुचकप्रभैश्च कर्केतन स्वरसूर्यकान्तैः। रुजाहरैः शीतलचन्द्रकान्तैस्तता मही भात्यतिसर्वकालम् ॥५॥ क्वचिच्च बन्धूकमनश्शिलाभा क्वचिच्च जात्यञ्जनहैमवर्णा । क्वचिच्च सारङ्गविहनतुल्या क्वचिच्छशाहाङ कुरसप्रभा च ॥६॥ तृणानि यस्यां चतुरङ्गालानि मृदूनि सौगन्धिकगन्धवन्ति । दशार्धवर्णान्यतिकोमलानि नित्यप्रवृत्तानि मनोहराणि ॥७॥ मन्दप्रवाताभिहतानि तानि परस्परस्पर्शजनिस्वनानि । मुष्टानुनावभवणक्षमानि गन्धर्वगीतान्यतिशेरतेच ॥८॥ तुरुष्ककालागरुचन्दनानां लवङ्गकङ्कोलककुङ, कुमानाम् ।
एलातमालोत्पलचम्पकानां गन्धान्स्वगन्धैश्च विशेषयन्ति ॥९॥ वज्रमणि आदिका सद्भाव तो वहाँके पृथ्वी तलको ऐसा सजा देता है कि वहाँको भूमि सुसज्जित सुन्दर स्त्रीके समान आकर्षक लगती है ।।४।।
महामहेन्द्र नीलमणियोंसे, रुचकप्रभ रत्नोंसे, कर्कतनों द्वारा, अत्यन्त जगमगाते हुए सूर्यकान्तमणियों द्वारा तथा आतपको शान्त करनेवाले चन्द्रकान्तमणियोंसे पुरी हुई पृथ्वी सब ऋतुओं और सब ही वेलाओंमें अत्यधिक शोभित होती है ॥ ५॥
किसी स्थानपर भूमिका रंग बन्धूक पुष्प या मनःशिला (गेरू ) के समान लाल है, दूसरे स्थलोंकी छटा जाति पुष्प, अञ्जन और सोनेके रंगकी है, अन्य स्थलोंकी कान्ति सारङ्ग (बगुला) पक्षियोंके पंखोंके समान है तथा कुछ अन्य स्थलोंकी छवि चन्द्रमाके अंकुरों (किरणों) के समान मोहक धवल है ॥ ६ ॥
_चारों तरफ उगी हुई भोगभूमिकी दूवके प्रधान गुण चार हैं-वह अत्यन्त सुकुमार होती है, उसकी गन्ध उत्तम सुगन्ध से व्याप्त है, अत्यन्त कोमल होते हुए भी उसके रंगोंको संख्या [ दशकी आधी ] पाँच है और वह मनमोहक दूब प्रतिदिन ऐसी मालूम देती है मानो नयी ही उगी हो ॥७॥
__ मन्द-मन्द पवनके झोंके जब दूबको झकोरे देते हैं तो उसके कोमल सुकुमार पौधे एक दूसरेको छूने लगते हैं उससे जो ध्वनि निकलती वह गन्धर्व देवोंके उन गीतोंको भी मात कर देती है जो मधुर स्निग्ध स्वर तथा उसकी प्रतिध्वनिके कारण अत्यन्त कर्णप्रिय होते हैं ॥ ८॥
_ वहाँपर व्याप्त सुगन्धियाँ अपनी गन्धके द्वारा तुरुष्क (लोवान ), कालागरु चन्दन, साधारण चन्दन, लवङ्ग, कंकोल १. म माहेन्द्र
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