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________________ शीतोष्णवातोरुतुषारवर्षा मेघतु कालाशनिविद्युदुल्काः। क्षुद्रोगशोकव्यसनेतयश्च न सन्ति यस्यामुपभोगभूमौ ॥ १० ॥ नृपाश्च भृत्याः कृपणा दरिद्राः स्तेनान्यदाराभिहता' नृशंसाः । पञ्बांधकाः कुणिकुब्जखज्जाः षट्कर्मधर्माभिरता न यस्याम् ।। ११ ॥ तृणं जलं गुल्मलताङ घ्रिपाश्च विहङ्गमा वा विषकोटसर्पाः । परस्पराबाधकरा मगा वा न सन्ति दुःखोद्धबहेतवस्ते ॥ १२॥ पर्यन्तवैडूर्यशिलाद्युतीनि प्रफुल्लपद्मोप्पलसंकटानि । प्रकृष्टकारण्डवहं वसन्ति २ प्रसन्नतोयानि सरांसि भान्ति ॥ १३ ॥ १३ ॥ (गुग्गुल ) कुकुम, इलायची, तमाल, सब प्रकारके कमल तथा चम्पक पुष्पोंकी सुगन्धियोंको; जो कि इस लोकमें सर्वोपरि मानी जाती हैं, भी पछाड़ देती हैं ॥९॥ समशीतोष्ण वहाँपर शीतके कारण ठिठुरना नहीं होता है और न गर्मीमें हाय-हाय करनी पड़ती है, न आँधियोंके आनेकी शंका है और न हिमपातका आतंक है, न वर्षा ऋतुकी चिन्ता है और न उसके सहगामी बादलोंके अन्धकार, वज्रपात, बिजलीकी चमक और घड़धड़ाहटका ही भय है, वे भोगभूमियाँ ऐसी हैं जहाँपर दुभिक्षोंका भय नहीं है, न रोगोंका आक्रमण है, अकाल मृत्यु, आदि, न होनेसे शोकके कारणोंका भी अभाव है, चोरी, परस्त्रीगमन, आदि व्यसनोंका तो नाम भी नहीं है और सबको सम सुख होनेके कारण आततायी आदिके उत्थान रूपसे ईतियोंका होना तो असंभव ही है ॥ १० ॥ समान समाज भोगभूमिमें न कोई राजा है और न कोई सेवक है। कृपणों और निर्धनोंका तो नाम ही नहीं सुनायी देता है । चोरी करनेवालों और परस्त्री प्रेमियोंकी तो कल्पना ही असंभव है, तब निर्दयी और हिंसकोंकी संभावना ही कैसे हो सकती है ? न तो वहाँ कोई लंगड़ा, अन्धा तथा गूगा है और न कोई कुणि, कुवड़ा और हाथ-टूटा है । इसी प्रकार वहाँ ऐसा एक भी मनुष्य न मिलेगा जो असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, गो(भूमि)रक्षा और सेवा इन छह कर्मोंको करता हो ॥ ११ ॥ वहाँ ऐसी जलराशि, घास, झाड़ियों, लतामण्डपों और वृक्षोंका अभाव है जो किसी भी प्रकारसे दुःखके निमित्त हो सकते है । हों। पक्षी, पशु, विषैले कोड़े और साँप आदिसे होनेवाले दुःखोंकी तो चर्चा ही नहीं सुन पड़ती है। भोगभूमिमें उत्पन्न हुए मृग आदि पशु आपसमें भी मारपोट ( घात-उपघात ) नहीं करते हैं ॥ १२॥ निर्मल जलसे पूर्ण भोगाभूमिके जलाशयोंकी छटा निराली ही होती है। उनके चारों और वैडूर्यमणिकी शिलाओंसे बने १. [स्तेयान्यदारामिरता]। २.[°कारण्डवहंसवन्ति ] । .वहाँ ऐसी जल, वाणिज्य, गो(भूमि) रक्षा और स्वाहा और हाथ-टूटा है। इसी प्रकार वहां से हो सकती है ? न तो [११५] www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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