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वराङ्ग चरितम्
2232-24
महामहत्प्रीतिपुरस्सराणि
पुण्याहमङ्गल्यशुभक्रियाणि ।
महोत्सवानन्दसमन्वितानि वर्षाण्यनेकानि गतानि तस्य ॥ १७ ॥
जाज्वल्यमानोत्तममौलिलीलः ।
कदाचिदीशान समानतेजा
मृगेन्द्रसत्कुण्डल घृष्टगण्डो रत्नोत्पलालिङ्गितहारवक्षा
विमिश्ररक्तोत्पलमाल्यधारी
ज्वलत्प्रलम्बोत्तमहेमसूत्रः ॥ १८ ॥ निबद्धरसुपीनबाहुः ।
दुकूलवस्त्रोज्ज्वलगाश्रयष्टिः ॥ १९ ॥
सुगन्धिसच्चन्दन कुङ्कुमाक्तस्तुरुष्ककालागरुधूपिताङ्गः
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शान्तः पुनः कान्तवपुर्नरेन्द्रः सुखं निषण्णो वरहर्म्यपृष्ठे ॥ २० ॥
जिनेन्द्र देवकी महामह ( राजपूजा ) आदि पूजाओंको करनेका सम्राटको अद्भुत चाव था। कोई ऐसा दिन न जाता था जिस दिन पुण्याह (स्तुति-पूजा ) आदि कोई कल्याणकारी तथा शुभबन्धका कारण प्रशस्त कार्यं न किया जाता हो । धार्मिक कार्यों के साथ-साथ ही प्रतिदिन कोई महोत्सव अथवा आनन्द प्रसंग ऐसे मनोविनोद भी चलते थे। इस विधिसे सम्राटके अनेक वर्ष बीत चुके थे ॥ १७ ॥
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भोगरत
एक दिनकी घटना हैं कि सम्राट राज प्रासादको छतपर बैठे थे। उस समय उनके तेजस्वी रूपको देखते ही प्रतापी इन्द्रका स्मरण हो आता था। उनके विशाल मस्तकपर जो उत्तम मुकुट बँधा था उसकी प्रभासे आसपासका वातावरण प्रकाशित हो रहा था । उज्ज्वल तथा रमणीय कुण्डल उसके गालों को छू रहे थे, इनपर महा इन्द्रनीलमणिका काम किया गया था । कंधेपर उत्तम सोनेका सूत्र पड़ा था जो कि धातुकी निर्मलता के कारण अनुपम तेजसे चमक रहा था ।। १८ ।।
विशाल वक्षस्थलको हार घेरे हुए था उसमें भाँति-भाँति के रत्न पिरोये गये थे । पुष्ट तथा पीन भुजदण्डोंपर सुन्दर तथा महा केयूर बँधे हुए थे । लाल मणियोंकी माला गलेमें सुशोभित हो रही थी, इसके बीच-बीचमें पिरोये गये अरुण रंगोंके मणियोंकी शोभा तो अलौकिक थी। स्वभावसे सुन्दर तथा स्वस्थ शरीरकी शोभा उस समय पहिरे गये धवल निर्मल वस्त्रों के कारण निखर उठी थी ॥ १९ ॥
सुगन्धि श्रेष्ठ चन्दनका लेप तथा कुंकुमसे सारा शरीर व्याप्त था। स्नान के उपरान्त तुरुष्क ( गुग्गुल ) तथा कालागरु चन्दनकी धूपका धुंआ दिया गया था जिसके कारण शरीरसे सुगन्ध के झोंके आ रहे थे। सम्राटके सुन्दर शरीरकी कान्ति देखते ही बनती। वे उस समय स्वभाव से भी अत्यन्त शान्त थे ॥ २० ॥
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अष्टाविंश: सर्गः
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