________________
अष्टाविंशः
बराज चरितम्
समानशीलाः समरूपवेषा गुणैः समेताः सदृशाः क्रियाभिः । परस्परस्नेहनिबद्धभावाः शिशिक्षिरे राजसुतैः कलाश्च ॥ १३ ॥ यस्यात्मजा नागकुमारकल्पा बलं च यस्यारिजनप्रमाथि। . यस्यासमो वैश्रवणो धनेन विभूतिरिन्द्रप्रतिमा च यस्य ॥ १४ ॥ यस्योरुनीत्या रिपवो हि नाशा गता विनाशं सकलत्रपुत्राः । प्रजाश्च सर्वद्धिगुणैरुपेता वर्णाश्रमांस्तस्थुरथ स्वमार्गः ॥ १५ ॥ अन्यायवृत्तिर्न बभूव लोके राज्ये च यस्यद्धिमभिप्रयाते। नवैर्नवैरर्थसुमित्रपुत्रैः स राजवर्योऽनुबभूव भोगान् ॥ १६ ॥
सर्गः
उन सब बालकोंका एक-सा शील था । उन सबका वेशभूषा एक ही शैलीकी थी। रूपमें भी वे सब एकसे ही थे। सबके सब बालक सद्गुणोंके भंडार थे । उठना बैठना, पढ़ना-खेलना आदि क्रियाओंमें इतनी समता थी कि उनमें भेद करना हो कठिन था । परस्पर का स्नेह तथा बन्धुत्व इतना बढ़ा हुआ था कि वे सब सहोदर ही मालूम देते थे। इस प्रकार वे सबही राजपुत्रोंके साथ-साथ मनुष्यके लिये परम उपयोगी बहत्तर कलाएँ सीख रहे थे ।। १३ ॥
आदर्श पिता सम्राट वरांगके सब पुत्र रूप, शील, पराक्रम, आदिमें नागकुमार देवोंके पुत्रोंके सगान थे। उनका निजी बल तथा कोश, सैन्य, आदि वल शत्रुओंका सहज ही मान मर्दन करनेमें समर्थ था। जहां तक सम्पत्तिका सम्बन्ध है साक्षात् वैश्रवण (कुवेर) भी उनकी समता नहीं कर सकते थे । आनर्तपुराधीशके वैभव तथा भोग सामग्रीका तो कहना ही क्या है ? वह इन्द्रकी विभूतिकी समता करती थी ॥ १४ ॥
उनकी राजनीति इतनी गम्भीर, सफल तथा दूरगामिनी थी कि उसके ही कारण उनके शत्रु केवल अपने राज्योंसे ही वंचित न हुए थे अपितु स्त्री बच्चोंके साथ समूल नष्ट हो गये थे । सम्राजकी समस्त प्रजा सब तरहकी सम्पत्ति तथा नागरिकोंके आदर्श गुणोंसे सुशोभित थी। सारे राज्यको प्रजा अपने-अपने धर्मों, वर्णों तथा आश्रमोंकी मर्यादाका विधिवत् पालन करती थी ।। १५ ।। अन्याय युक्त प्रवृत्तिका पूरे राज्यमें कहींपर भी नाम तक न सुनायी देता था क्योंकि उनका राज्य दिनों-दिन
उनका राज्य दिना-दिन आध्यात्मिक और आधिभौतिक संपत्तियोंकी वृद्धि कर रहा था। सम्राट वरांगको सदा ही नूतन मित्रों तथा पुत्रादि प्रियजनोंका समागम तथा अद्भुत संपत्तियों की प्राप्ति हो रही थी। फलतः वे प्रचुर मात्रामें भोगोंका रसास्वादन कर रहे थे ।। १६ ।। १. [ हताशा]। २. क पुत्रम् । ३. म स्वमार्गे ।
MARRESPERITAMETHIRDEReatsARIRA RIES
THEATRE
[१५८]
Jain Education international
For Privale & Personal Use Only
www.jainelibrary.org