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________________ अष्टाविंशः सर्ग: चरितम् स नीतिचक्षुर्मतिमान्विधिज्ञः कलाविदग्धो व्यसनावपेतः । शुचिश्च शूरः सुभगश्च नित्यं बालोऽप्यबालो गणशीलवत्तः ॥९॥ किं देवविद्याधरकिन्नराणां सुतः प्रवच्यावनिमाजगाम । आहोस्विदङ्गावयवैरनको विस्मापनाय स्वयमागतः स्यात् ॥१०॥ तथैव शेषाश्च महेन्द्रपन्यः सुरेन्द्रपत्नीसमचारुशीलाः। अतुल्यरूपांस्तनयानविन्दन् शुभोदये सत्कृतयो यथैव ॥ ११ ॥ अमात्यसेनापतिमन्त्रिपुत्राः सुताश्च सामन्तनरेश्वराणाम् । पुनः प्रधान द्धतमात्मजाश्च नरेन्द्रपुत्रः सहसंप्रदाना: ॥१२॥ वह उन सबहीके नेत्रोंके लिए रसायन था। नेत्र इन्द्रिय अविकल होनेपर भी कुमार सुगात्रकी वास्तविक आँखें नीतिशास्त्र था। उसकी मति सत्पथ पर ही चलती थी । प्रत्येक कार्यको सफल विधिको वह जानता था । पुरुषकी बहत्तर ही कलाओंका पंडित था, परस्त्रीगमन, मदिरापान, आदि व्यसनोंसे अछूता था। उसके आचार-विचार पवित्र थे । पिताके समान शूर था। प्रतिदिन देखनेपर भी वह सुभगतर ही लगता था। अवस्थाके कारण बालक होनेपर भी अपने गुणों, शील तथा कार्योंके द्वारा वह वृद्ध के समान अनुभवी ही था।॥९॥ उसकी क्षमताओंका ध्यान आते ही जनताको ऐसा लगता था कि कोई देवकुमार अथवा विद्याधरकुमार अथवा कोई किन्नरपुत्र ही अपने लोगोंको बिना बतलाये पृथ्वीपर चला आया है। दूसरे ही क्षण जब उसके शरीरको देखते थे तो उन्हें यही A आशंका होती थी कि मनुष्य लोकको आश्चर्यमें डालनेके ही लिए मनसिज कामदेव, जिसका शरीर ही नहीं है वही सांगोपांग शरीर । धारण करके पृथ्वीपर आ पहुँचा है ॥ १० ।। अन्य गुत्र साम्राज्ञी अनुपमादेवीके समान ही सम्राटकी दुसरी सब रानियोंको भी पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई थी। इन सब रानियोंको । चारुता, स्वभाव तथा अन्य प्रवृत्तियाँ देवराज इन्द्रकी पत्नीके समान थीं। फलतः उनसे जो पुत्र पैदा हुए थे उन सबका रूप तथा अन्य गुण अतुल थे। इन पुत्रोंका जन्म वैसा ही था जैसा कि शुभकर्मोके उदय होनेपर भले कार्योंका परिणाम होता है ॥ ११ ॥ इसी अवसरके आगे-पीछे उत्पन्न हुए आमात्यों, सेनापतियों तथा मन्त्रियोंके पुत्र, इन बालकोंके ही समवयस्क सामन्त राजपुत्र, नगरकी श्रेणियों तथा गणोंके प्रधानोंके पुत्र तथा नगरके जो कुलीन पुरुष थे उन सबके पुत्र भी राजपुत्र सुगात्र आदिके साथ ही रहते खेलते थे॥ १२ । १.क शुभोदया। २. म पुर प्रधान, [ पुरप्रधान° ]। ३. क संप्रधानाः । [५५७] For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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