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वराङ्ग
चरितम्
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सामुद्रहोराफलजातकवच' दृष्ट्वा कुमारं पृथुराज्यभारम् ।
प्रशस्य पुण्यापितभारतीभिः सुगात्र इत्येव हि नाम चक्रुः ॥ ५ ॥ निदाघमासे व्यजनं यथैव करात्करं सर्वजनस्य याति । तथैव गच्छन्प्रियतां कुमारो वृद्धि च बालेन्दुरिव प्रयातः ॥ ६ ॥ रूपेण वर्णेन गतिस्थितिभ्यां वाक्येन दृष्टा वपुषा श्रिया च । विज्ञानशील स्थिर मित्रभावैः पित्रा समो राजसुतो बभूव ॥ ७ ॥ प्रमत्तमातङ्गविलासगामी शरत्प्रपूर्णामलचन्द्रकान्तः । विचित्रसल्लक्षणमण्डिताङ्गो रेजेऽतिमात्रं नयनाभिरामः ॥ ८ ॥
यशके प्रसारक पुत्रको साम्राज्ञीने उसी भाँति उत्पन्न किया था जिस प्रकार पूर्वदिशा प्रबल प्रतापी तथा उदार उद्योतमय बालभानुको प्रकट करती है ॥ ४ ॥
भविष्यवक्ता विशेषज्ञोंने उसी समय सामुद्रिक शास्त्र, होरा ( होड़ा ) चक्र ( गृहचक ) फलित तथा अन्य निमित्तों से भलीभाँति विचार करके यही कहा था कि इस शुभ मुहूर्त में उत्पन्न राजपुत्र विशाल साम्राजका एकक्षत्र राजा होगा। | स्तुतिपाठकों, गुरुजनों, आदिने पुण्य वचनों द्वारा उसकी प्रशंसा करके उसका नामकरण 'सुगात्र' नामसे किया था ।। ५ ।।
ग्रीष्मऋतुके दोनों महीनोंमें लोग भी भीषण आतपसे उद्विग्न रहते हैं उस समय विजना मनुष्यों के हाथों-हाथ हो घूमता रहता है कभी भूमिपर नहीं रखा जाता है राजपुत्र सुगात्र भो कुटुम्बियों बन्धुबान्धवों आदिको इतना अधिक प्यारा था कि सदा ही लोग उसे हाथों-हाथ लिये फिरते थे । वह द्वितीयाके कलाचन्द्र के सदृश दिन दूना और रात चौगुना बढ़ रहा था ॥ ६ ॥ राजशिशु
राजपुत्र सुगातका शरोर, आकार, दृष्टि, शरीरका रंग, चलना, उठना-बैठना, शरीरकी कान्ति तो पिताके समान ही । इन बाह्य सादृश्यों के अतिरिक्त उसका उदार स्वभाव, प्रत्येक विषयका सूक्ष्म तथा सर्वांग ज्ञान, विचारशक्ति, विनम्रता आदि भाव तथा दृढमैत्री ये सब गुण भी उसमें उसी मात्रामें वर्तमान थे जिस मात्रा में उसके पितामें थे फलतः पिता पुत्रमें कोई विषमता थी हो नहीं ॥ ७ ॥
किशोर अवस्थामें ही जब वह चलता था तो ऐसा लगता था मानों मदोन्मत्त हाथी चला जा रहा है। उसकी वासना हीन निर्मल कान्तिको देखते ही शरद् ऋतुके पूर्ण चन्द्रमाका ध्यान हो आता था। उसके शरीर में अनेक विचित्र शुभ लक्षण थे । इन सब कारणोंसे उसकी शोभाकी कोई सीमा ही न थी ॥ ८ ॥
१. [ जातकानि ] |
२. क निदाह ।
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३. क दृष्ट्वा, [ दृष्ट्या ] ।
४. म क्रिया ।
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अष्टाविंश:
सर्गः
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