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________________ बराङ्ग चरितम् चतुर्थः सर्गः" संसारे प्राणिनः सर्वे सुखदुःखानुवर्तिनः । इष्यते कारणं कर्म तयोश्च सुखदुःखयोः ॥ १ ॥ तदेकं कर्म सामान्याद्भेदावष्टकमुच्यते । चतुर्धा भिद्यते बन्धान्निमित्ताच्च चतुविधम् ॥ २ ॥ ज्ञानावरणमाद्यं हि द्वितीयं दर्शनावृतम् । तृतीयं वेदनीयाख्यं चतुर्थो मोह उच्यते ॥ ३ ॥ आयुश्च पञ्चमं प्रोक्तं नाम षष्ठमुदाहृतम् । सप्तमं गोत्रमित्युक्तमन्तरायोऽष्टमः स्मृतः ॥ ४ ॥ जगत्सृष्टा कर्म देव आदि चार गतियों में विभक्त इस संसार में कृमिसे लेकर सर्वार्थसिद्धिके देव पर्यन्त सब ही प्राणी दुख-सुख के अनादि चक्रों में परिवर्तन कर रहे हैं। इन संसारी जीवोंके द्रव्य और भाव सब ही सुख-दुखोंके कारण उनके निजार्जित शुभ और अशुभकर्म ही हैं, ईश्वरकी इच्छा, माया या प्रकृति आदि नहीं हैं ।। १ ।। सामान्य दृष्टिसे देखनेपर सांसारिक सुख-दुखों का प्रधान कारण कर्म एक ही प्रकारका है, किन्तु परिपाक की अपेक्षासे भेद करनेपर उसीके आठ भेद हो जाते हैं। कर्म अपने बन्धके पंचविध कारणों मिथ्यादर्शन जो अविरति, प्रमाद, कषाय और योग भेद तथा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश प्रकारोंकी अपेक्षासे चार प्रकारका कहा गया है ॥ २ ॥ ज्ञानस्वरूप जीवके ज्ञानको रोकनेवाला ज्ञानावरणी प्रथम कर्म है, पदार्थोंके साक्षात्कारका बाधक दर्शनावरणी दूसरा कर्म है, सुख दुखमें साता और असाताके अनुभवका द्योतक वेदनीय तीसरा कर्म है, जोवके स्वभावको अन्यथा करनेवाला मोहनीय चौथा कर्म है ॥ ३ ॥ अष्ट कर्म देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नरक गतियोंमें वासका कारण आयु कर्म पाँचवां है, मनुष्य, पशु, पक्षी आदिके अलग-अलग, शरीरोंका निर्माता छठा नाम कर्म है । उच्च और नीच विभागों का कारण सातवां कर्म गोत्र है और ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यं भोग आदिकी प्राप्तिका प्रधान साधक-बाधक अन्तिम ( आठवाँ अन्तराय) कर्म है ॥ ४ ॥ १. क श्रीमदभिनवचार कीर्तिपण्डिताचार्य मुनये नमः । ८ Jain Education Internationa For Private & Personal Use Only चतुर्थ: सर्ग: [ ५७ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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