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________________ बराङ्ग चरितम् चतुर्थः सर्गः मूलप्रकृतयस्स्वेता नामतः परिकीर्तिताः । आद्य कर्मणि पञ्चैव द्वितीये नवधा स्मृतम् ॥ ५॥ तृतीये द्विप्रकारं तु चतुर्थेऽष्टौ च विशतिः। चतुष्प्रकारमायुष्कं द्विचत्वारिंशन्नामनि ॥६॥ गोत्रे तु द्विविधं प्रोक्तमन्तरायस्तु पञ्चधा। उत्तरप्रकृतयः सर्वाः संख्याता हि समासतः ॥७॥ आये द्वे मोहनीयं च दुःखदान्यन्तरायिकम् । वेद्यायुर्नामगोत्राणि सुखदुःखानि नित्यशः ॥८॥ मतिश्रुतावधिज्ञानं मनःपर्ययकेवलम् । अभिभूय स्वबीर्येण तमः समवतिष्ठते ॥९॥ उत्तर-प्रकृति इस प्रकारसे कर्म सामान्यके आठ प्रधान भेदों ( मूल प्रकृतियों ) के नाममात्र आपको बताये हैं। इन्हीं मूल प्रकृतियोंको विस्तृत रूपसे देखनेपर प्रथम कर्म ज्ञानावरणीके पांच भेद होते हैं, दूसरे दर्शनावरणीके नौभेद हैं ।। ५॥ __ तृतोयकर्म वेदनीयके दो ही भेद हैं, कर्मोंके मुखिया मोहनीय नामके चौथे कर्मके सम्यक्त्व मोहनीय और चारित्र मोहनीय यो प्रधान भेद हैं तथा इनके ही अवान्तर भेद अट्ठाइस होते हैं । योनि विशेषमें रोक रख नेवाले आयुकर्मके भी चार भेद हैं, नाना प्रकारके आकार और प्रकारोंके जनक षष्ठकर्म नामके प्रधानभेद बयालीस हैं ।। ६॥ शक्तिको अपेक्षा समान एक ही योनिके जीवोंको भी उच्च और नीच वर्गोमें विभाजक गोत्रकर्म प्रधान रूपसे दो ही प्रकारका है और अन्तिम कर्म अन्तरायको उत्तर प्रकृतियाँ पाँच हैं। इस प्रकारसे संक्षेपमें आठों कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियोंको गिना दिया है ॥ ८॥ विपाक भेद पहिले दो कर्म अर्थात् ज्ञानावरणी और दर्शनावरणी तथा चौथा कर्म मोहनीय ये तीनों जीवको एकान्तरूपसे दुख ही 1 [५८] । देते हैं । तथा वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय इन पाँचों कर्मोंका फल सदा ही सुख और दुखमय होता है ।। ८॥ ज्ञानावरणी ज्ञानावरणीकर्म अपनी अन्धकारमय प्रकृतिकी मार सामर्थ्यके द्वारा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान (परोक्षप्रमाण), अवधिज्ञान, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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