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ROUTENER
तृतीयः
वराङ्ग चरितम्
सर्गः
कुमतिदुरुपदेशाद्धर्मसद्भावकृत्ये
___ जगति न हि विदन्ति क्षीणपुण्या नरा ये। अविदितपरमार्थास्ते पनर्जन्मवासे
चिरतरमपि कालं दुःखभाजो भवन्ति ॥ ६२॥ अत इह मतिमन्तो धर्ममयं जनानां त्रिभुवनसुखसारप्रापर्क
मारपापक संभजध्वम् । त्यजत' वितथशून्यं श्यामलं लोकधर्म
शृणुत तदुपरिष्टाकर्मणां च प्रभेदम् ॥ ६३ ॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते
धर्मप्रश्नो नाम तृतीयः सर्गः।
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ज्ञानी पुरुषार्थी जीव ( भरत चक्रवर्तीके समान ) दुर्द्धर तप तपे विना ही साधारण तपस्या द्वारा ही अपने चरमलक्ष्य क्षायिक सुखोंके सागर मोक्षको प्राप्त कर लेता है ।। ६१ ।।
कुमति संसारमें जिन प्राणियोंका पुण्य क्षीण हो जाता है उनपर कुमतिका एकाधिकार हो जाता है और उन्हें मिथ्यात्वका उपदेश ही रुचता है फलतः वे धर्माचरण और उत्तमभावोंके रहस्यको समझते ही नहीं हैं। परिणाम यह होता है कि वे तत्त्वज्ञान और अर्थरहस्यसे अनभिज्ञ ही रह जाते हैं और बार-बार जन्ममरणके चक्रमें पड़कर अनन्तकालतक दुख भरते हैं ।। ६२॥
अतएव जिन पुरुषोंकी सद्बुद्धि नष्ट नहीं हुई है वे मनुष्य धर्मों में सर्वश्रेष्ठ उस सत्यधर्मका आश्रय लें जो तीनों लोकोंके सुखोंके सारभूत मोक्षसुखकी प्राप्ति कराता है और दुराचारपूर्ण उन लौकिक वाममार्गोंको छोड़ दें जिनमें सत्यका नाम भी नहीं है ॥ ६३ ॥ अब समस्त कर्मोंके भेद और प्रभेदोंको सावधानीसे सुनें । चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ-रचनामय वराङ्गचरित नामक धर्मकथामें
धर्मप्रश्न नामक तृतीय सर्ग समाप्त ।
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IASISTATE
१.क त्यजथ, म त्यजतथ (?)। Jain Education international
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