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________________ सप्तवियः बराङ्ग चरितम् त्रिंशद्दशातो नवतिः प्रविष्टा अतः सहनं नवतिस्तथातः । शतं सहस्रं नवसंगणे द्वे स्यात्सप्तमस्यान्तरमहंतस्तु ॥ ५७ ॥ ततोऽन्तरं तन्नवतिस्तु कोट्यो नवैव कोट्यो नवमान्तरं तत् । समद्रकोटीगणितप्रमाणात्स्यावहतामन्तरकं नवानाम् ॥५८॥ षट्षष्टिसंख्या नियुतप्रमाणं षड्विंशतिश्चापि सहस्रपिण्डः । शतेन युक्ता किल सागराणां कोटी तथोना दशमान्तरं स्यात् ॥ ५९॥ षट्टना नवत्रिंशदथो नवाथ चत्वार एवं त्रितये तथान्यत् । पादोनपल्योनसमुद्रसंख्या षण्णां जिनानामिदमन्तरं स्यात् ॥ ६॥ -सर्गः मायHEIRRIGITALIAnsETRIES निम्नलिखित गणित करना पड़ेगा-समुद्रसे दशगुणित पाँचका आदिनाथ स्वामीके निर्वाणके बाद गुणा करे जो फल आये उतने कोटि सागर (पचास कोटि सागर ) प्रमाण वर्ष बीत जानेपर अजितनाथ हुए थे। यही प्रथम तथा द्वितीय तीर्थंकरके बीचका अन्तराल होगा ।। ५६ ॥ भगवान् अजितनाथ और शंभवनाथके बीच में तोस कोटि सागरका अन्तराल था। श्री शंभवनाथ और अभिनन्दननाथके बीचका अन्तराल दश कोटि सागर वर्ष था तथा चौथे और पांचवें तीर्थंकरोंका अन्तराल नौ लाख करोड़ सागर वर्ष प्रमाण है। पाँचवें तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ तथा पद्मप्रभुके बीचका अन्तराल नब्बे हजार करोड़ वर्ष है ।। ५७ ॥ तथा छठे तीर्थंकर और श्री सुपार्श्वनाथका अन्तराल हजार कोटिमें नौका गुणा करनेपर जो ( नौ हजार कोटि ) आवे उतने वर्ष होता है । सप्तम तीर्थंकर और श्री चन्द्रप्रभके बोचमें नौ सौ करोड़ वर्षका अन्तराल पड़ा था। आठवें तथा नौवें सोथंकरोंके अन्तरालका प्रमाण केवल नब्बे करोड़ वर्ष था। नौंवा अन्तराल केवल नौ करोड़ सागर वर्ष है इस प्रकार श्री आदिनाथ प्रभुसे लेकर भगवान शीतल पर्यन्त जो नो अन्तराल गिनाये हैं ये सबके सब कोटि सागर वर्षों में गिनाये हैं ।। ५८॥ छयासठ नियुत (= अयुत सौ सहस्र) तथा छब्बीस हजारके पिण्ड (युक्त) को सौ सागरने मिलाकर जो प्रमाण आवे उसको एक कोटि सागरमें से घटा दिया जाय अर्थात् सौ सागर छयासठ लाख छबीस हजार वर्षको एक कोटिसागरमें से घटाने पर जितना शेष रह जाय उतने वर्षका ही अन्तराल भगवान शीतलनाथके मोक्ष तथा श्रेयान्सनाथके आविर्भावके बीचमें पड़ा था ।। ५९॥ छह गुणित नौ अर्थात् चउअन, तीस, नौ, चार सागर तथा तीन चौथाई ( ३/४ ) पल्य कम तीन सागर क्रमशः श्री श्रेयान्सनाथ तथा वासुपूज्य प्रभु, वासुपूज्य और विमलनाथ प्रभु, विमलनाथ और अनन्तनाथ प्रभु, अनन्तनाथ और पन्द्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ तथा धर्मनाथ एवं शांतिनाथके बीच में अन्तराल थे। मह सब प्रमाण सागरोंको संख्यामें कहे हैं। ये छह । तीर्थंकरोंके बीचके पाँच अन्तराल हैं ।। ६० ॥ Jain Education Interational For Private &Personal use only.. www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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