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________________ बराज किमत्र चिन्स्यं कुशलानुबन्धि' यत्तदा त्वयुक्तागतिसिद्धिकारकम् । यथा परैर्नो परिभूयते पुनस्तथा हि कार्य स्वहिताभिलाषिणा ॥ ७० ॥ महापदं प्राप्य नरोत्तमः पुनर्न चैच्छदात्मप्रियबन्धुदर्शनम् । नराधमः स्त्री धनमानवजितः स बन्धुसंगं कृपणो हि वाञ्छति ॥७१ ॥ यथैव राज्यादनपीय तत्क्षणाच्चकार मां निविभवं पुराकृतम् । तथैव राज्यं सुकृतं यदस्ति चेत्तदैव मां स्थापयतु स्वकालतः ॥ ७२ ॥ इमामवस्थामनभय यद्यहं व्रजामि चेदबन्धसकाशमाशया। भवाम्यरीणां परिहासकारणं स्वबन्धमित्रष्टजनातिशोचनः ॥ ७३ ॥ ॥ त्रयोदशः सर्गः मच AFRASTROHAIRanrammasumaAPAHIRPATHAARPATHADHIPARATIBAnter था कि उसके उस समय उदयको प्राप्त कर्मों के अनुरूप कौनसा कर्तव्य कल्याण कर हो सकता था। विशेषकर अपने देशको लौट जाना कैसा होगा, अथवा दूसरे-दूसरे देशोंमें पर्यटन करना ही उपयुक्त होगा ।। ६९ ॥ ऐसी परिस्थितियोंमें जो उपाय कुशल क्षेमका बढ़ानेवाला हो उसका सोचना हो क्या है, किन्तु यदि उद्देशकी सफलतामें बाधक गति असम्भव हो हो तब तो अपने हित और उत्कर्षको चाहनेवाले व्यक्तिको वही मार्ग पकड़ना चाहिये जिसपर चलकर, फिर दूसरोंके द्वारा तिरस्कृत होनेको आशंका न हो ।। ७० ।। न बन्धुमध्ये श्रीहोन जीवितं पुरुषार्थी श्रेष्ठ पुरुष लोकोत्तर महान् पदोंको पाकर भी अपने परम प्रियजनों तथा बन्धुबान्धवोंके दर्शन करनेकी अभिलाषा, क्या नहीं करते हैं ? किन्तु अपनी स्त्री-बच्चोसे बिछुड़कर तथा सम्पत्ति, वैभव, सन्मान आदिको खोकर भी जो व्यक्ति अपने मित्रों अथवा कुटुम्बियोंके साथ रहना चाहता है वह अत्यन्त कृपण और दोनहोन नर है ।। ७१ ॥ मेरे पूर्वकृत कुकर्मोंके विपाकने राज्य सिंहासनपरसे खोंचकर एक क्षण भरमें ही जिस प्रकार मुझे अमित वैभव और प्रभुतासे वंचित कर दिया है, यदि मेरा पुण्य शेष है तो वह ही समय आनेपर मुझे उसी प्रकार राज्यसिंहासनपर स्थापित करे ऐसा स्व-संबोध किया था ।। ७२ ॥ इस प्रकारकी दयनीय दुरवस्थामें पड़ा हआ मैं यदि सहायता या उद्धारकी आशा लेकर अपने कुटुम्बियों और मित्रोंके पास जाऊँगा तो मेरे बन्धु-बान्धव, मित्र तथा प्रिय लोग मेरा होन अवस्थाको देखकर खेद खिन्न होंगे और इससे भी बुरा तो यह होगा कि शत्रुओंको मेरा उपहास करनेका अवसर मिलेगा ।। ७३ ।। १. म कुशलानुबन्धे । २. म यदा त्वयुक्ता । ३. क श्रीधन। ४. [रराज्ये ""वेत्तदेव । E ATREELIGIRLikes [२३१] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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