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NAGAL
वरांग
न चोभयं मे परदेशदर्शने भविष्यतीति स्वमति विधाय सः । महापथेनाप्रतिमाभपौरुषस्ततः प्रतस्थे स्वमतानसिद्धये ॥ ७४ ॥ खरान्प्रदेशानस्थलनिम्ननिर्जलान गिरीन्दरी: काननकक्षकन्दरान् । अतीत्य सूर्यास्तमनेऽङ्घ्रिपोपरि ह्यशेत कायोप सृति विचिन्तयन् ॥ ७५ ॥ पुनः प्रभाते तरुतोऽवतीर्य तं प्रयान्तमध्वानमवेक्ष्य साथिकाः। प्रबाध्य निर्भर्त्य निरुध्य निर्दया उपेत्य पप्रच्छरथाति गतिम् ॥ ७६ ॥ क्व यासि कि पश्यसि कि प्रयोजनं क्व वेश्वरो वा क्व च तस्य नाम किम् । कियबलं वा कतियोजने स्थितं वदेति संगृह्य बबन्धुरीश्वरम् ॥ ७७ ॥
त्रयोदशः सर्गः
चरितम्
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यदि मैं विदेश चला जाता हूँ तो अपनोंके दुःख तथा शत्रुओंके उपहास इन दोनोंका कारण न होऊंगा' यह सोचकर उसने दूसरे देशोंमें भ्रमण करनेका निर्णय किया था। विविध विपत्तियाँ झेलनेपर भी उसके आत्मबलको सीमा न थी इसलिए उक्त निर्णय करनेके उपरान्त ही वह यवराज अपने इष्टको लिद्धिके लिए एक विस्तृत लम्बे रास्ते पर चल दिये थे ।। ७४ ।।
वरं वनं व्याघ्र गजेन्द्र सेवितं कंकरीले, पथरीले कठोर स्थलों, जलहीन किन्तु समुद्रतलसे भी नोचे प्रदेशों, पर्वतों, भयंकर गुफा मागों, जंगलों, अत्यन्त घने दुर्गम वनों तथा कन्दराओंको पार करता हुआ वह बढ़ता जाता था। ज्यों ही सूर्य अस्ताचल पर पहुँचते थे वह किसी वृक्ष पर चढ़ जाता था और कार्य तथा घटनाओंकी शृंखलाको सोचता हुआ रात काट देता था ॥ ५ ॥
सूर्योदय होते ही वह वृक्षसे नीचे उतरकर चल देता था। एक दिन इसी प्रकार मार्गपर चलते हुए उसे व्यापारियोंके सार्थ ( काफिले ) ने देखा था, देखते हो वे निर्दय उसके चारों ओर जा पहुंचे और बाधा देकर उसको रोक लिया था। यद्यपि इस संसारमें युवराजका कोई चारा (गति ) न था तो भी उन सबने डाँट डपटकर उससे उसका गम्य स्थान आदि पूछा था ।। ७६ ।।
सशंक प्रश्न "कहाँ जाते हो ! क्या जाँच पड़ताल करते फिरते हो? इस अन्वेषणका क्या प्रयोजन है ? तुम्हारे अधिपतिका नाम क्या है ? वह इस समयपर कहाँ है ? उसका नाम क्या है ? उसके सैन्य-बलका प्रमाण कितना है ? यहाँसे कितने योजनकी दूरीपर ठहरा है ? इत्यादि सब बातोंको तुरन्त बताओ।' कहकर उन लोगोंने युवक राजाको बन्धनमें डाल दिया था ।। ७७ ॥ १. क कायोनुसूर्ति, [ कायोपस्थिति ] ।
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