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________________ बराङ्ग त्रयोदशा . चरितम् अथागतः सार्थपरोक्षणाय चेत्परीक्ष्यतां साधु परोक्ष्य चारिकः । प्रवालमुक्तामणिरूप्यकाञ्चनैरयं भूतः सार्थ इतो निगद्यताम् ॥ ७८॥ नचारिकोऽहं न च वित्तमार्गणो न दुष्टबुद्धिर्न च चौर्यतत्परः। न कस्यचित्प्रेष्यजनो भवाम्यहं भ्रमामि निःकेवल 'मित्युवाच सः ॥ ७९ ॥ वयं न विद्मोऽर्थपतिः प्रमाणको गुणागुणान्वेषणतत्परायणः । स एव जानाति यवत्र युक्तिमानिति वाणाः पतये प्रणिन्यिरे ॥८॥ सबन्धनं चारुसमग्रयौवनं सुलक्षणव्यज्जनल क्षविग्रहम् । समीक्ष्य सार्थाधिपतिर्न तस्करो विमुच्यतां लध्वयमित्युवाच सः ॥ ८१ ॥ सर्गः 'हे गुप्तचर ! यदि तुम हमारे सार्थको सम्पत्ति आदिका पता लगाने हो आये हो तो आओ (व्यंगपूर्वक कह रहे हैं) चारों तरफ घूमकर भलीभाँति सब बातोंका अनुमान कर लो। यहाँसे जाकर अपने अधिपतिसे कह देना कि यह सार्थ मूंगा, मोती, मणि, चाँदो, सोना आदि बहुमूल्य संपत्तियोंसे परिपूर्ण है।' सार्थका समाधान इसके उत्तरमें युवराजने कहा था-'न तो मैं किसोका गुप्तचर हूँ, न मैं धन सम्पत्तिको खोजमें घूम रहा हूँ, न मेरे मनमें हो किसी प्रकारका पाप है, न चोरी मेरो अजीविकाका साधन है और न मैं किसीके द्वारा भेजा गया किंकर ( गुप्तचर ) हो हूँ। आप इतना विश्वास करें कि भाग्यका मारा मैं केवल निरुद्देश्य भ्रमण ही कर रहा हूँ ।। ७९ ।। सार्थपतिके सामने इस उत्तरसे उन्हें संतोष न हुआ था अतएव उन्होंने कहा था-'हम लोग कुछ नहीं जानते, दोषों और गुणोंका विवेक करने में हमारे प्रधान सार्थवाह अत्यन्त कुशल हैं, अतएव आपके विषयमें वे ही निर्णय कर सकेंगे। क्योंकि ऐसे विषयों में क्या कर्तव्य युक्तिसंगत होगा यह वही समझते हैं।' यह कहकर वे युवराजको सार्थवाहके सामने ले गये थे ।। ८० ॥ परिपूर्ण यौवन, सुन्दर तथा बन्धनोंसे जकड़े हुए राजकुमारके शुभ लक्षणोंसे व्याप्त शरीरको देखकर ही सार्थवाहको उसकी कुलीनताका विश्वास हो गया था अतएव उसने आज्ञा दी थी कि 'इसे तुरन्त ही बन्धनोंसे मुक्त करो, यह सैकड़ों सार्थोंका स्वामी है, चोर नहीं हो सकता है ।। ८१ ॥ [२३३] १. कनः केवलं । २. म लक्ष्म, [ लक्ष्य ] । ३० Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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