SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बराङ्ग चरितस् नरेन्द्रपुत्रः स्वयमेव वा नृपः शरीरचार्वाकृतिसौम्यदर्शनः । कथं न्विमामापदमाप्तवानयं स सार्थनाथः परिपृच्छति स्फुटम् ॥ ८२ ॥ कुतस्तवायातिरितः क्व गच्छसि पिता च माता च सुहृज्जनः क्व ते । श्रुतं च गोत्रं चरणं च नाम कि न चेद्विरोधो वद वत्स पृच्छतः ॥ ६३ ॥ स एवमुक्तः प्रविचक्षणो नृपः परीक्ष्य पूर्वापरकार्यमब्रवीत् । इयं स्ववस्था कथयत्ययत्नतः किमेतया संकथया विमुच्यताम् ॥ ८४ ॥ निशम्य तद्वाक्यमुदारसौष्ठवं समूचिवान्ससंदि सार्थनायकः । अहो विशुद्धान्वयतास्य पश्यतो' न विस्मयं गच्छति नैव कुप्यति ॥ ८५ ॥ इति प्रशंसन्गुणरूपसंपदं निरीक्ष्य च क्षामकपोलनेत्रताम् । करेण हरतं प्रतिगृह्य दक्षिणं स नीतवानात्मनिवासमादरात् ॥ ८६ ॥ यह किसी प्रबल प्रतापी राजाका पुत्र है, अथवा स्वयं ही यह कोई बड़ा राजा है, इसका शरीर और मुख आदिकी आकृति मनमोहक हैं, यह विचारा इस प्रकारको आपत्ति में कैसे आ फँसा है!' कहकर निम्न प्रश्नोंको सार्थं पति ने स्पष्ट रूपसे पूछा था ।। ८२ ।। आप किधरसे आ रहे हैं ? यहांसे कहाँ जाते हैं ? आपके पिता, माता तथा मित्र बान्धव कहाँ पर निवास करते हैं ? आपकी शिक्षा क्या है। आपका गोत्र क्या है ? तथा आप किस आचरणको पालते हैं । हे वत्स ! यदि इनका उत्तर देनेसे इष्टकार्यमें बाधा न पड़ती हो तो मेरी जिज्ञासाको पूर्ण करो ।। ८३ ।। गम्भीर ाजकुमार राजकुमार स्वभावसे बुद्धिमान और लोकाचारमें कुशल थे अतएव उन्होंने अपने पर बीते कर्मों तथा कर्त्तव्योंका आगापीछा सोचकर इन सब प्रश्नोंके उत्तर में यही कहा था "मेरी वर्तमान अवस्था ही सब स्पष्ट बतला रही है तब बतानेका और क्या प्रयत्न किया जाय। इन सब बातोंसे क्या प्रयोजन ? कृपा करके मुझे छोड़ दोजिये" ॥ ८४ ॥ कुलीनताका भक्त सेठ सागरवृद्धि राजकुमारके अत्यन्त सज्जनता और साधुतासे युक्त वचनोंको 'सुनकर सार्थं पति ने अपने सब साथियोंकी गोष्ठी में प्रसन्नता और उत्साह के साथ घोषित किया था 'अरे ! इसकी परमोत्कृष्ट कुलीनताको आप लोग देखें हमारे विभिन्न व्यवहारोंसे न तो इसे आश्चर्य ही होता है और न हम लोगोंके अपमानोंके कारण यह कुपित ही है ।। ८५ ॥ इस प्रकारसे उसके क्षमा आदि गुणों, रूप आदिको हृदयसे 'श्लाघा करते हुए उसकी दृष्टि राजकुमारके दुर्बल तथा १.[ पश्यत ] २. म संमदं । Jain Education International For Private & Personal Use Only त्रयोदशः सर्गः [ २३४ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy