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________________ त्रयोदशः बराङ्ग चरितम् प्रदाप्य पाचं वणिजां पतिस्ततो हितं वचः श्रोत्रसुखं निगद्याच। वरासने वेत्रमये निवेश्य तं सतैलसंवाहनतामकारयत् ॥७॥ दयासंप्रयुक्तो वणिक्वेणिनाथः शशासात्मभृत्यं लघु स्नापयेति । यथेष्टं वरान्नं चतुभिस्त्वहोभिरभुङ्क्ताग्रतः श्रेष्ठिनः संनिविष्टः ॥ ८॥ सुगन्ध सुमाल्यं वरं वस्त्रयुग्मं प्रदायात्मशक्त्या क्षमस्वेत्यवोचत् । भवद्भिः सहैवागमिष्यामि तावदिति प्राह सोऽप्येवमस्त्वित्युवाच ॥ ९ ॥ इतिधर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते सागरवृद्धिसंदर्शनो नाम त्रयोदशमः सर्गः । सर्गः न्यायमचाचELAICHIELHI कृश' कपोलों और नेत्रों पर रुक गयी थी। यह देखकर उसने आदर और स्नेहसे युवराजका दायाँ हाथ अपने हाथमें ले लिया था और आग्रहपूर्वक उसे अपने तम्बूमें ले गया था ।। ८६ ।। मार्गमें वह युवराजके हितको प्यारी-प्यारी बातें करता गया था। तम्बूमें पहुँचते हो उस सम्पत्तिशाली सार्थवाहनें स्वयं पैर धोनेके लिए पानी मँगवाया था। इसके उपरान्त यात्रामें उपयुक्त वेतोंसे बने उत्तम आसन पर बैठाकर अपने सामने । ही उस वरांग के शरीर का मर्दन, लेपन, अभ्यङ्ग आदि करवाया था ।। ८७॥ वणिकोंकी श्रेणीके अधिपतिके हृदयमें स्नेहमिश्रित दया कुमारके प्रति उभर आयी थी। इसकी प्रेरणा इतनी प्रबल थी कि उसने अपने सेवकोंको आज्ञा दी थी कि 'वे यवराजको सुकुमारता पूर्वक बहुत शीघ्र स्नान करावें।' इसके अतिरिक्त वह युवराजके लिए बढ़ियासे बढ़िया भोजन उनकी इच्छाके अनुकूल बनवाता था। तथा प्रारम्भके चार छह दिन पर्यन्त तो युवराजको सेठजीके साथ ही भोजन करना पड़ता था ताकि वह संकोच न कर सके ।। ८८॥ __ यात्राको सुविधाओंके अनुसार वह अपनी पूर्णशक्ति भर कुमारको चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थ, उत्तम माला आदि वर प्रसंग, बढ़ियासे बढ़िया उतरीय तथा अधरीय वस्त्रोंकी जोड़ी देता था, तो भी कहता था 'असुविधाके लिए क्षमा करें'। यह सब देखकर युवराज कुमारने कहा था कि 'कुछ समय तकमें आप लोगोंके साथ ही चलता हूँ' इसपर सेठने कहा था 'आपकी कृपा, ऐसा ही हो' ॥ ८९ ।।। चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें सागरवृद्धि-दर्शन नाम त्रयोदश सर्ग समाप्त । [२३५) १. क निगद्यत । वरासने वेत्रमयाववेनसि निवेश्य संवाहनतामकारयत् ॥ २. [ त्रयोदशः ] । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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