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चतुर्दशः सर्गः
बराङ्ग चरितम्
चतुर्दशः सर्गः
एकाकिनारण्यपथेन याता प्राप्तानि दुःखानि सुदुस्सहानि । इति प्रसंधार्य निवृत्तयानः सार्थाधिपेनैव सहोपविष्टः ॥१॥ प्रगृह्य मानाकृतिचारुवेषान्विभूष्य माल्याम्बरभूषणानि । भुक्त्वा यथेष्टं वणिजस्तु गोष्ठीनिष्ठ: २समध्व्यासत संकथाभिः ॥२॥ सार्थेन सर्वद्धिमताधिनस्ते सहागता ये नटनर्तकाद्याः । वागनचेष्टाकृतिकौशलं स्वं प्रारेभिरे दर्शयितु यथावत् ॥३॥ गायन्ति गीतानि मनोहराणि नृत्यन्ति नत्यान्यपरे विधिज्ञाः । वाद्यानि वीणाम रजादिकानि शिक्षानपूर्व प्रतिवादयन्ति ॥ ४ ॥
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चतुदश सर्ग
"बुधेरण्यपथेनगम्यते" 'दुर्गम तथा भीषण जंगली मार्गोपर एकाकी भटकते हुए मैंने कैसे-कैसे हृदय विदारक अत्यन्त असह्य सैकड़ों दुःखों को सहा है' इसको, उतने दिनोंके अनुभव का निष्कर्ष मानकर ही युवराजने अपने निरुद्देश्य भटकनेको समाप्त कर दिया था और सार्थपतिके साथ ही चलने लगा था ।।१।।
सार्थपतिके द्वारा सादर समर्पित सुन्दर वस्त्रों वेशाभूषाओंको ग्रहण करके, सुगन्धित मालाओं, आभूषणों आदिसे अपने आपको आभूषित करके अपने यथार्थ कुलीन आकारको प्रकट करके यथेच्छ भोगों' उपभोगों का रस लेता हुआ वह सबका प्रिय हो गया था। उन लोगोंकी गोष्ठीमें उत्तम कथाएँ कहता हुआ बैठता था ॥ २॥
धन प्राप्ति करनेके परम इच्छुक जो नट, ( स्वांग रचने वाले ) जो नतंक आदि अत्यन्त सम्पत्ति और समद्धियुक्त उस सार्थके साथ चल रहे थे, उन लोगोंने भी इसे रसज्ञ समझकर अपने शरीर, वचनों तथा विशेष अंगोंकी परिष्कृत कुशलता अभिनय का विधिपूर्वक इसके सामने प्रदर्शन करना आरम्भ कर दिया था ॥ ३॥
संगीत विशारद लोग मनको मोहित करनेवाले मधुर गीत गाते थे, नृत्य-कलामें निपुण दूसरे लोग विधिपूर्वक विविध नृत्य करते थे तथा अन्य लोग अपनी उत्तम शिक्षाके अनुकूल वीणा,मुरज, मृदंग आदि बाजोंको सुचारु रूपसे बजाते थे ॥ ४ ॥
१. म गोष्ठे निष्ठः। २. [ समध्यासत ] । ३. म मुरुजा।
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