________________
चतुर्दशः
सर्गः
प्रहाससंलापविलासवन्ति रसानविद्धानि सुकल्पितानि । लोकप्रवृत्तानि कथान्तरेषु भाण्डाविचित्राणि विलम्बयन्ति ॥५॥ तदैव दिग्रक्षणतत्पराक्षाः पुलिन्दसंदर्शनतो विभीताः। अभ्येत्य तूर्ण वणिजां समूहे इत्थं पुनः सागरवृद्धिमूचुः ॥ ६ ॥ महाबलौ क्रूरतमावसह्यौ कालो महाकाल इति प्रतीतौ । पुलिन्दकानां त्रिचतुस्सहस्रराजग्मतुर्नाथ हितं कुरुष्व ॥ ७॥ दिग्रक्षकाणां वचनं निशम्य आहूय युद्धाय नरान्सुभृत्यान् । वाग्दानमानैरभिसंप्रपूज्य संनातेति प्रशशास तूर्णम् ॥ ८॥ सनातस्तान्नुपतिः समीक्ष्य श्रुत्वातितूर्ण पृतनाद्वयस्य । सखेटकं खड्गवरिष्ठमेकं श्रेष्ठिरममापि त्वमुपानयस्व ॥९॥
SHREETHEATREE-THEP HERAIHEATRENARRAHARASHTRA
कथाओं के बीच-बीच में भांड लोग संसारमें अत्यन्त प्रचलित बातों का ही बड़ी विचित्र विधिसे स्वांग ( नकल ) करते थे। यह स्वांग तीव्र हँसी, नाना प्रकार की बार्ताओं तथा हाव भावोंसे युक्त रहते थे, हास्य आदि नव रसोंमेंसे सने रहते थे तथा उनकी कल्पना व शृंगार भी शिष्ट होता था।५॥
रंगमें भंग जिस समय इधर राव-रंग हो रहा था उसी समय सार्थ की रक्षाके लिए सब दिशाओं में नियुक्त रक्षकोंने शीघ्रतासे वणिकों की गोष्ठीमें आकर उनके प्रधान सागरवृद्धिसे निम्न संदेश कहा था। ये अंगरक्षक अपनी अपनी दिशाका तत्परतासे निरीक्षण कर रहे थे तथा भीलों को देखकर डर गये थे ।। ६ ॥
हे स्वामी अत्यन्त शक्तिशाली, निकृष्टतम निर्दय, संभवतः न रोके जाने योग्य, काल तथा महाकाल नामोंसे प्रसिद्ध पुलिन्दोंके नायक, भीलोंकी तीन चार हजार प्रमाण सेनाके साथ हमारे ऊपर टूटे आ रहे हैं । ऐसी अवस्थामें जो कुछ हितकारी हो उसे करनेकी आज्ञा दीजिये ॥ ७॥
रण आवेश दिशाओंमें नियुक्त रक्षकोंके उक्त संदेश को सुनकर सार्थपति सागरवृद्धिने अपने विश्वस्त पुरुषों तथा स्वामीभक्त सेवकों को बुलाया था। उत्साह वर्द्धक प्रशंसामय वाक्यों, भविष्यमें उन्नतिको आशा, आदर आदिसे उनका सत्कार करके उन्हें आज्ञा दी थी कि वे सब युद्धके लिए अति शीघ्र तैयार हो जाय ।। ८ ।।
अपनी सेनाके भटोंको युद्धके लिए सजता देखकर तथा आक्रमण करनेवाली भीलोंकी दोनों सेनाओंके रणवाद्यों की . १.[भाण्डानि चित्राणि विडम्बयन्ति । २. म श्रेष्ठिन्नयामि ।
२३.
Jain Education intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org