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त्रयोदशः
सर्गः
प्रहृष्य भूयः कटकादिभूषणान्विचित्रवस्त्राणि च संप्रदाय ते । 'वरान्नमेतत्तव योग्यमिष्यतां श्रमं व्यपोह्य क्रमतः प्रयास्यसि ॥६६॥ तमूचिवान्नोवनकार्यमस्ति मे न माल्यगन्धाम्बरभूषणादिभिः । महापथं दर्शय देशगामिनं विमुच्यतां लध्वभियाम्यविघ्नतः ॥ ६७॥ ततः पुलिन्दाधिपतेश्च शासनान्नरैः सुदूरं गमितो नरेश्वरः। प्रदर्श्य मार्गान्बहुदेशगामिनः पुननिवृत्ता वनगोचरास्तदा ॥ ६८ ॥ गतेषु तेषु स्वकृतानुरूपतां विचिन्त्य सम्यग्बहुशो नराधिपः । स्वदेशयानं प्रति किं विशेषतो व्रतान्यदेशाटनमिष्यते क्षमः ॥ ६९
आँखोंका चंचलतापूर्वक घुमाना ही यह सूचित करता था कि उनके आश्चर्यका ठिकाना नहीं था। अन्तमें उन्होंने बड़े आग्रहपूर्वक यही प्रार्थना की थी "हे नाथ ! गुणोंको पहिचाननेमें असमर्थ हम जड़बुद्धियोंने आपके साथ महान अपराध किये हैं, हमारो मूर्खताका ख्याल न करके उन्हें क्षमा कर दीजिये ॥ ६५ ।।
जब कुमारने उन्हें सरलतामें यों हो क्षमा कर दिया तो वे इतने प्रसन्न हुए थे कि उन्होंने तुरन्त कटक (पैरोंका भूषण ) आदि उत्तम आभूषणों तथा नाना प्रकारके अद्भुत वस्त्रोंको लाकर युवराजको भेंट किये थे । 'यह बढ़िया अन्न-पान आपके योग्य है इसे स्वीकार करिये आप अपनी थकान और घावोंके ठीक हो जानेपर ही यहाँसे जा सकेंगे' ॥ ६६ ॥
आगेके मार्गको शोध इस प्रकारके वाक्योंसे कृतज्ञता प्रकट करनेवाले भिल्लराजसे युवराजने केवल इतना ही कहा था-'मुझे भात, दाल । आदिकी आवश्यकता नहीं है, सुगन्धिमाला, सुन्दर सुगन्धित वस्त्रों तथा कटक आदि आभूषणोंसे भी मुझे कोई सरोकार नहीं
है, आप किसी देशको जानेवाले उत्तम मार्गको मझे दिखा दीजिये और बिदा दीजिये ताकि मैं जल्दी ही किसी विघ्न बाधाके, बिना वहाँ पहुँच सकूँ ॥ ६७ ।।
यह सुनते ही पुलिन्दपति कुसुम्भने तुरन्त आज्ञा दी थी। जिसके अनुसार कितने हो भील नरेश्वर वरांगको काफी दूरतक अपने साथ ले गये थे। वहाँपर कई देशोंको जानेवाले उत्तम मार्ग दिखाकर वनखण्ड निवासी वे उक्त भील लोग लौट गये थे॥ ६८॥
भावो कर्तव्य-द्विविधा मार्ग दिखानेके लिए साथ आये भीलोंके लौट जानेपर नराधिप वरांगने बार-बार गम्भीरतापूर्वक भलीभाँति यही सोचा। १.क वराङ्गमेतत् । २. क विशिष्यतो ।
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