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सर्गः
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गतासुमुवीक्ष्य स तं वनेश्वरो यथावचार्या' गृहमीक्षितुं गतः। तमासितं तत्र नपं सबन्धनं समीक्ष्य पप्रच्छ विषप्रणाशनम् ॥ ६१॥ 'पुलीन्द्रनाथेन स चोदितो भृशं करोम्यहं निविषमित्यभाषत ।
त्रयोदशः तदैव तुष्टाः परिमुच्य बन्धनं कुरु प्रसादं त्वमिहात्मसूनवे ॥ ६२ ॥ ततो नृपो मन्त्रपुरस्कृतैः पदैर्महर्षियोगीश्वरसाधुसाधितः । जिनेश्वराभिष्टवमिश्रिताम्बुभिः सिषेच तस्मिन्विषदोषहारिभिः ॥ १३ ॥ यथा यथा मन्त्रितवारिबिन्दुभिः प्रसेचितः कुम्भमुखात्परिस्रुतैः । तथा तथा निविषतामपेय वान्प्रसन्नचेताः प्रकृति ययौ पुनः॥ ६४॥ ततः कुसुम्भप्रमुखाः पुलोन्द्रकाः कराङ्गुलिभ्रामणविस्मितेक्षणाः ।
महापराधोऽकुशलात्मभिः कृतः क्षमस्व नाथेति ययाचिरे भृशम् ॥६५॥ जंगलके राजाने जब अपने पुत्रको पूर्ण रूपसे अचेतन देखा तो विषका प्रतिकार खोजता हुआ वह वनदेवीके मन्दिरमें जा पहुँचा उसमें घुसते हो पुलिन्दपतिकी दृष्टि महाराज वरांग पर पड़ो जो अपने बन्धनोंमें जकड़े विवश पड़े थे। दुःखसे व्याकुल भीलनाथने उनसे पूछा था-"क्या तुम विषका उपचार करना जानते हो ।। ६१ ॥
पुलिन्दोंके प्रभुसे उक्त प्रश्न पूछे जानेपर कुमार वरांगने उत्तर दिया था-"मैं निश्चयसे किसी भी आदमीका पूरा विष दूर कर सकता हूँ।" यह सुनते ही वह वनराज अत्यन्त प्रसन्न हुआ था, उसने तुरन्त ही उनके बन्धन तुड़वा दिये थे और प्रार्थना की थी कि 'आप इस समय मुझपर अनुग्रह करें ।। ६२॥
विषापहारं मणि' - पुलिन्दपतिके लड़केके पास पहुँचकर राजाने ( वरांगने) (विषजन्य अचेतना आदि समस्त रोगोंको शान्त करनेसे समर्थ ) परम ऋषियों, श्रेष्ठ योगियों तथा सफल साधुओंके द्वारा विधिवत् जगाये गये मंत्रोंका पाठ करनेके साथ, श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेवके स्तवनोंका उच्चारण करते हुए विषवेगमें मूच्छित युवक पुलिन्द पर जलके छींटे देना प्रारम्भ किया था॥६३।।।
कलशके मुखसे बहते हुए मंत्रपूत जलके छींटे ज्यों-ज्यों मूच्छित भीलपर दिये जाते थे, त्यों-त्यों उसका विष उतरता जाता था और उसके शरीरका उतना भाग विषके विकारसे मुक्त होता जाता था। इस प्रकार थोड़ी ही देरमें वह प्राकृतिक
[२२९] अवस्थामें आ गया था और तन-मनसे प्रसन्न हो गया था। ६४ ।।
यह देखकर पुलिन्दनाथ 'कुसुम्भ' आदि प्रधान भील बड़े आश्चर्यमें पड़ गये थे। हाथकी अंगुलियोंका मोड़ना और १. [ यथापचर्यागृह ] । २. क पुलिन्द। ३. [ °मुपेयिवान् ] ।
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राजाना पुलिन्दपतिकम विणका उपकुमार वर्गगमन्न हुआ
बाम
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