SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बराङ्ग चरितम् क्षुधापमानाङ्गविबन्धपीडनैरनिष्टगन्धद्रवणेऽप्रियेक्षणैः । अनात्मवश्यस्य सहस्र संगुणा गता निशा सा बहुदुः खचिन्तया ॥ ५७ ॥ ततः प्रभाते च कुसुम्भभृत्यका महीपति तं कलुषान्तरात्मकाः । प्रगृह्य याता वनदेवतागृहं द्विजा ऋतुं छागमिव' प्रहिंसितुम् ॥ ५८ ॥ तदैव कौसुम्भिममेयवीर्यकं वनं प्रयान्तं मृगयाभिकाङ्क्षया । उदग्रकोपश्च रणत्रमर्दनाद्ददंश दंष्ट्रोग्रविषो भुजंगमः ॥ ५९ ॥ स तेन दष्टः क्षणमात्रतः पुनः पपात भूमौ विषवेगमूच्छितः । विमोहितासु प्रसमीक्ष्य बान्धवाः पितुः सकाशं ह्यभिनिन्युरावृताः ॥ ६० ॥ जिससे तीव्र सडांद आ रही थी। नाना प्रकारके मच्छर, चींटी आदि क्रमियोंका वह अक्षय भंडार था; यह सब लगातार काटते थे, झाडू देना, लीपना, पोतना आदि संस्कार तो उस घरके कभी हुए हो नहीं थे, उसका धरातल सीलके कारणसे चिपचिपाता था तथा वायु भी वहाँ ठंडो ही मालूम होती थी ।। ५६ ।। इसके अतिरिक्त भूख से देह दृट रही थी, अपमानको ज्वाला शरीरको जला रही थी, रस्सियोंके बंधन अंग-अंग में चुभ रहे थे, स्थानकी गंध और रक्तादिकी धारा विकट वेदनाको उत्पन्न करते थे, आँखोंके सामने जो कुछ भी आता था वह सब ही अप्रिय था तथा ऊपरसे दुःख और चिन्ता भी अपरिमित थीं। इन सब कारणोंसे विचारे सर्वथा पराधीन युवराजको एक रात बिताने में ही ऐसा कष्ट हुआ मानों हजारों रातें बीत गयी हैं ॥ ५७ ॥ नरबलि सज्जा किसी प्रकार सुबह होते ही पुलिन्दोंके अधिपतिके सेवक, जिनके अन्तःकरण इतने मलीन थ कि उनसे दया आदिकी संभावना करना ही अशक्य था- उस राजा वरांगको जबरदस्ती पकड़कर धनदेवीके मन्दिरको वैसे ही घसीट ले गये थे, जैसे यज्ञमें नियुक्त ब्राह्मण, यज्ञके बकरेको बलि करनेके लिए ले जा रहे हों ।। ५८ ।। इसी बीच में पुलिन्दपति के अनुपम तथा अमित पराक्रमी पुत्रको, जो कि आखेट करनेकी इच्छासे, जंगलमें जा रहा था -- अत्यन्त कुपित महाविषैले साँपने काट लिया था, क्योंकि उसके पैरसे वह साँप कुचल गया था ।। ५९ ॥ काटनेके बाद विष इतने वेगसे पूरे शरीर में फैला कि वह भीमकाय पुलिन्द क्षणभर में ही मूच्छित होकर धड़ामसे पृथ्वीपर गिर पड़ा था। चारों तरफ घेरकर खड़े सगे सम्बन्धियोंने देखा कि उसको चेतना नष्ट हो रहो है और वह मूच्छित हो रहा है तो वे सबके सब बड़ी तेजीसे उसे पिताके पास उठा ले गये थे || ६० ॥ १. [ क्रतुण्छागमिव ] । Jain Education International For Private & Personal Use Only त्रयोदश: सर्गः [ २२८] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy