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________________ बराङ्ग चरितम् कुर्वन्ति ये ये न च पुण्यपापमवश्यमाहारबलेन दातुः । तांस्तांश्च राजन्स्वविपाककाले' ध्रव पुनस्तदद्वयमभ्युपैति ॥ ४५ ॥ असंयतेभ्यो वसतिप्रदानादाहारदानात्सहवासतस्तु । यथैव दण्ड्याः सह तैर्गहेशा आदातभिर्दानपरास्तथैव ॥ ४६॥ सुसंयतेभ्यो वसतिप्रदानादाहारदानात्सहवासतस्तु । यथैव पूज्याः सह तैर्गहेशा आदातभिर्दानपरास्तथैव ॥ ४७॥ अपात्रदानाच्च कुमानुषाणामनिष्टगात्रेन्द्रियसौख्यभोगाः । कुज्ञानसत्त्वद्युतिधीर्यशांसि भवन्त्ययत्तात्स्वयमेव तानि ॥ ४८ ॥ LAGIR जिन दाताओंके भोजनसे प्राप्त शक्तिके द्वारा पुण्यकर्म किये जाते हैं और पाप नहीं किये जाते हैं उन्हें फलप्राप्तिके अवसरपर पुण्य ही मिलता है तथा जिनके भोजनसे प्राप्त शक्तिके द्वारा पाप किया जाता है और पुण्य नहीं किया जाता है उन्हें फल प्राप्तिके अवसर पर निश्चयसे पाप ही मिलता है ।। ४५ ॥ असंयमी व्यक्तियोंको शरण देनेसे, उनका भरणपोषण करनेसे अथवा उनकी संगति करनेसे जिस प्रकार निर्दोष गृहस्थ उन अपराधियोंके साथ नाना प्रकारके दण्ड पाते हैं उसी प्रकार दानविमुख, कुकर्मरत लोगोंको दान देनेसे दाता लोग भो उनके कुकर्मों में हाथ बँटाते हैं ।। ४६ ॥ संयमी शिष्ट पुरुषोंको अपने घर पर ठहरानेसे, भोजनपान व्यवस्था द्वारा उनका स्वागत करनेसे तथा उनकी सुसंगतिमें रहनेके कारण ही साधारण गृहस्थ जिस प्रकार पूजा और सम्मानको पाता है उसी प्रकार स्वयं दानकर्मसे होने योग्य प्रतिग्रहीताके साथ उदार दानी भी पुण्य कमाते हैं ।। ४७ ।। ALESEDGIRecoraERY ___अपात्र सुपात्र दानफल अपात्रोंको दान देनेसे यह जीव कुत्सित मनुष्यों के समान अशुभ और अवगुणमय देहको पाते हैं फलतः उनकी इन्द्रियोंकी प्रवृत्तियाँ भी अकल्याणकी तरफ होती हैं, सुख और भोग भी पतनकी दिशामें ले जाते हैं। बिना किसी प्रयत्नके ही उनका ज्ञान दूषित हो जाता है, शक्ति और बुद्धिका झुकाव भी अनिष्ट कर होता है तथा उनकी शारीरिक और मानसिक शोभा तथा कोति भी कलंकित हो जाती है ।। ४८॥ १. म°स विपाक°। www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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