SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वराङ्ग चरितम् सर्पेण पोतं विषमादधाति तिक्तत्वमायाति च निम्बपीतम् । आम्लो रसस्तिन्त्रिणिकाकपित्थैः काम्लो भवेदामलकेन पीतम् ॥ ४१ ॥ देयं तथैकं ह्यनवद्यरूपं दाता च भक्त्या द्विगुणोपपन्नः । प्रतिग्रहीतुगुणतः फलानि फलन्त्यनेकानि सुखासुखानि ॥ ४२ ॥ भुक्तान्नवीर्येण हि केचिदत्र स्त्रीद्यूतहिंसा मदिराभिरक्ताः । परापवादाभिरता नृशंसाचिन्वन्ति पापान्यसुखप्रदानि ॥ ४३ ॥ केचित्पुनर्ज्ञानविशुद्धचित्ता दृढव्रताः शान्तकषायदोषाः । जितेन्द्रिया न्यायपथानुपेताः पुण्यानि कर्माणि समर्जयन्ति ॥ ४४ ॥ कटुतिक्त हो जाता है, कदली में जाकर वह मीठे केले उत्पन्न करता है, ईखमें प्रवेश करके वही जल सबसे मीठे गुड़ और शक्करको उत्पन्न करता है, सुपारी और हर्रमें पहुँचकर वह कषाय ( कसैले ] रसका कारण होता है ॥ ४० ॥ उसी मधुर-निर्मल जलको पीकर साँपका विष बढ़ता है, नीमकी जड़ोंसे खींचा गया वही रस उसके कडुवे स्वादका कारण होता है, इमली और कैंथको जड़ों में पड़ा वही जल खट्टे रसमें बदल जाता है और आँमडे तथा आँवलेके द्वारा पिया गया वही जल अम्ल रसका जन्मदाता होता है ॥ ४१ ॥ इसी प्रकार देय पदार्थ है, वह अपने आप सर्वथा दोषोंसे रहित है । किन्तु दाताकी योग्यताओं और भक्तिके द्वारा उसकी विशेषताएँ दूनी हो जाती हैं तथा ग्रहण करनेवालेकी योग्यताओंके अनुसार वह सुख-दुःखमय विविध प्रकारके फलोंको उत्पन्न करता है ।। ४२ ।। दान परिपाक निदर्शन 'भोजनमें खाये गये अन्नसे प्राप्त शक्तिके द्वारा इस संसारमें बहुत से लोग स्त्रियोंसे कामरति, जुआ, शिकार, हिंसा, शराब, गांजा आदि मादक द्रव्योंका सेवन करते हैं, दूसरे लोग उस शक्तिको दूसरोंकी अपकीर्ति करनेमें व्यय करते हैं और अन्य लोग निर्दयतामय कार्य करके भयंकर दुःखोंके दाता पापोंको ही कमाते हैं ।। ४३ ।। किन्तु दूसरे कुछ लोग जिनके हृदय ज्ञानरूपी निर्मल जलधारसे घुलकर रागद्वेषादि दोषोंसे निर्मल हो गये हैं, जो सत्य, अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा परिग्रहत्याग व्रतोंके पालनमें दृढ़ हैं, क्रोधादि कषाय तथा अन्य दोषोंको नष्ट कर दिया है, इन्द्रियाँ जिनकी आज्ञाकारिणी हैं तथा जो सदा न्यायमार्ग पर ही चलते हैं वे अपने भोजनसे प्राप्त शक्तिके द्वारा पुण्य कर्मोंका ही संचय करते हैं ॥ ४४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only सप्तमः सर्ग: [ १२२] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy