________________
वराङ्ग
चरितम्
विनय एव हि भूषणमुत्तमं विनयमूलमिदं जगतः पदम् । तत इतो विनयं वणिजां पते तव करोमि यशःपरिवद्धये ॥४८॥ अविदितं भवता न च विद्यते नरपतेरिदमस्य चिकीषितम् ।
विशतितमः रणनिमित्तमनेन हि गच्छता जिगमिषामि सहानुमतेन ते ॥४९॥
सर्गः इति वचः कथितं तनयेन तत्क्षमवबुध्य पिता पुनरभ्यधात् । इह भवन्तमपास्य हि जीवितु मम मतिः सुमते न च वाञ्छति ॥५०॥ तव गुणेन च पुत्र गुणप्रिय प्रथितकोतिरभूवमहं भुवि । नुपतिना समतां पुनराप्तवाननुपमा जगतो बहुमानताम् ॥५१॥ इह विहाय हि मां प्रगते त्वयि किमवलम्ब्य मया प्रतिषज्यते ।
व्रजसि मन्दरधीर यतो यतस्तनय मां च नयस्व ततस्ततः॥५२॥ विनम्रता मनुष्यका सबसे उत्तम भूषण है, संसारका सबसे उत्तम पद शुद्ध विनयके कारण ही प्राप्त होता है तथा मेरा जितना भी अभ्युदय हआ है वह विनयमलक हो है अतएव हे सार्थपते ! संसारमें यशको बढ़ानेकी अभिलाषासे आपके आगे प्रणत हूँ॥ ४८ ॥
महाराज देवसेन इस समय जिस कार्यको करना चाहते हैं यह सब किसी भी रूपमें आपसे छिपा नहीं है । ललितेश्वर इसी समय युद्धके लिये प्रस्थान कर रहे हैं, मैं भी उनके साथ-साथ जानेके लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ, किन्तु अपनी इच्छा ही से प्रेरित होकर नहीं अपितु आपकी अनुमति प्राप्त करके ही जाना चाहता हूँ ॥ ४९ ।।
उपकारी ही सगा है जब धर्मपुत्रने विनयपूर्वक अपने मनके भावोंको इन वचनोंसे स्पष्ट कर दिया तो पिताको उसका निर्णय समझनेमें देर न लगी। कुछ देर सोचकर उसने कहा था। 'हे सुमते ! तुम्हारे विना मैं भी यहाँ जीवित नहीं रह सकूँगा।' मेरे मनमें ऐसा आता है। ५०॥
हे सद्गुणोंको प्रेम करनेवाले पुत्र! तुम्हारी असाधारण योग्ताओंके कारण ही सारी पृथ्वीपर मेरी कीर्ति विख्यात हो गयी है। तुम्हारे पराक्रम तथा गुणोंने हो मुझे महाराज देवसेनके समान बना दिया है, आज मैं सारे राज्यके लिए इतना अधिक मान्य हो गया हूँ कि उसकी तुलना करना ही असंभव है ।। ५१ ॥
३८९) आवशं पिता जब तुम मुझे यहाँ छोड़कर दूसरे देशको चले जाओगे, तो तुम्ही बताओ, मैं किसके सहारे यहाँपर जीवित रहूँगा? ॥ ' अतएव हे सुमेरुके समान धीर गम्भीर पुत्र तुम जिस-जिस देशको जाओ, मुझे भी वहीं वहीं लेते चलो ॥ ५२॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org