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विंशतितमा
सर्गः
इति समाप्य विवाहमनुत्तमं जिगमिषुः स्वपुरात्परमदितः । स्वसुतया सकलैः' सह बन्धुभिर्नरपतिः कृतवान्सह भोजनम् ॥४४॥ मदनतापनखेदितचेतना पतिमुपेत्य मनोगुणितं चिरम् । रविकराभिहता जलदागमे वसुमतीव जहर्ष मनोरमा ॥ ४५ ॥ अथ यियासुरतुल्यपराक्रमो वरतनुविषयं प्रति चात्मनः । उदधिवृद्धिमुपेत्य वचः स्फुटं समधुराक्षरमित्यमभाषत ॥४६॥ असहदो वनगोचरिणो भवान्मम पिता न पितापि पिताभवत् । किमिह खेदकरैर्बहभाषितरुभयलोकहितो न परो गरुः ॥ ४७॥
प्रीतिभोज जब समस्त विवाहके संस्कार परम श्रेष्ठ विधिपूर्वक समाप्त हो गये थे तो युवराज वरांग अपने विपुल वैभव तथा । सम्पत्तिके साथ अपने जन्म नगर उत्तमपुरको जाने के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित था । अतएव विदाके पहिले ललितेश्वरने समस्त बन्धुबान्धव, अधिकारी आदि तथा पुत्रियों के साथ एक विशाल सहभोज किया था ।। ४४ ।।
कश्चिद्भटको देखनेके दिनसे ही कामदेवने विचारी मनोरमाको विरहने इतना जलाया था कि उनके प्राणोंपर संकट आ पड़ा था। ऐसी व्यथाको चिरकाल तक सहकर विचारीको मनके अनुकूल पति मिला था । अतएव वह ग्रोष्मकालमें भयंकर अग्निके समान दाहक सूर्यको प्रखर किरणोंसे जलाये जानेके वाद वर्षाऋतुके प्रारम्भमें मेघोंके द्वारा शान्तकी गयी पृथ्वीके समान परम प्रमुदित हुई थी । ४५ ।।
कृतज्ञता हो साधुता है अनुपम पराक्रमी युवराज वरांग अपने पिताकी राजधानीको लौट जानेके लिए आतुर हो रहे थे। इस उत्कट अभिलाषाको कार्यान्वित करनेके अभिप्रायसे वे अपने धर्मपिता सागरवृद्धिके पास गये थे, तथा उनकी अनुमति प्राप्त करनेके लिए मधुर शब्दोंसे निर्मित प्रार्थनाको निम्न प्रकारसे कहा था ।। ४६ ।।
जब मैं गहन वनमें ठोकरें खाता फिरता था। कोई मित्र व सहायक नहीं था। इतना ही नहीं परम पराक्रमी, स्नेही तथा सर्वशक्ति सम्पन्न मेरे पूज्य पिता भी अपने कर्तव्यको मेरे प्रति पूरा न कर सके थे, उस समय आप ही मेरे पिता हुए थे। पुरानी स्मृतियोंको दुहरा करके दुख देनेवाली इन बहुत सी व्यर्थ बातोंकी पुनरावृत्ति करनेसे क्या लाभ है ? इस लोक तथा परलोक दोनोंमें कल्याण करनेवाले आप ही मेरे सच्चे गुरु हैं ।। ४७ ।। १. म सबलः ।
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