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HAMAR
विंशतितमः
अनुनिशम्य स मातुलभारती हृदयपङ्कजकुड्मलबाधिनीम् । नपगणः कुरुतात्तव शासनं समरुषं त्वनयेत्यवदत्पुनः ॥ ४०॥ स्वभगिनीसुतवाक्यरतो नृपो गुरुतयाभिदधौ' स निगृह्य तम् । परिगृहाण गुणोदयभूषणां प्रियसुतां मम वत्स मनोरमाम् ॥४१॥ नृपतिवाक्यमुदारमतिस्ततस्तदनुमत्य तथास्त्विति संजगी। युवनपाय मतङ्गजगामिने समददात्तनयां मुदितस्तदा ॥ ४२ ॥ प्रणयवानपि यन्नपतिः परा स्वजनताश्रतिबद्धमनोरथः । द्विगुणया स महोत्सवसंपदा प्रतियुयोज सुधीभगिनीसुतम् ॥ ४३ ॥
सर्गः
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स्वदार संतोषका श्राद्ध मातुलराज ललितेश्वरके हृदयरूपी कमलको विकसित करनेमें समर्थ उक्त प्रस्तावको सुनकर युवराज वरांगने निवेदन किया था 'हे महाराज समस्त राजा लोग आज्ञाका पालन करें यही मेरी हार्दिक अभिलाषा है, तथा मैं तो आपको एकमात्र तनया सुनन्दासे ही परम सन्तुष्ट हूँ' ।। ४० ॥
ललितेश्वरको भानजेके वचन सुनने में आनन्द हो नहीं आ रहा था अपितु वे उसके वचनोंको मानते भी थे तो भी उसे बीचमें हो रोककर उन्होंने गम्भीरतापूर्वक कहा था 'हे बेटा ! समस्त गुणोंके पूर्ण विकासरूपो भूषणोंसे अलंकृत मेरी परमप्रिय पुत्री मनोरमाको तो अवश्य ग्रहण कर लो ॥ ४१ ॥
मनोरमासे विवाह राजकुमार वरांगकी दृष्टि स्वभावसे उदार थी अतएव मातुल राजाके उक्त प्रस्तावको उन्होंने मान लिया था और कह दिया था 'जैसी आपकी आज्ञा' । फिर क्या था महाराज देवसेनकी प्रसन्नताकी सीमा न थी उन्होंने उसी समय तैयारियाँ । करके मस्त हाथीके समान गम्भीर गमनशील युवराजको अपनी पुत्री व्याह दो थी॥ ४२ ॥ ___ महाराज देवसेन पहिलेसे ही युवराज वरांगको बड़ा प्यार करते थे, इसके साथ-साथ राज्यकी जनतामें कानों-कानों।
[३८७1 भी इस मनोरथकी चर्चा फैल गयी थी अतएव दुगुनी सम्पत्ति तथा महोत्सबके साथ अपनी पुत्रीका भानजेके साथ गठबंधन कर दिया था ॥ ४३ ॥
AIRTELसाबमा
१.क विदधौ।
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