________________
बराङ्ग
विंशतितमः
चरितम्
सर्गः
वरवराङ्ग पुरा विदितो मया कथमिहोषितवानसि संवृतः । इति वदन्नुपसृत्य नरेश्वरो 'हर्षफुल्लमुखः परिषस्वजे ॥ ३५ ॥ वनगतोऽहमथोदधिवृद्धिना करुणया परया तनयीकृतः। तदनु ते तनयामपधाव में नरपतित्वपदे स्वमधिष्ठिपन ॥३६॥ अथ ततो भवतो ह्यधिको न मे भुवि न कश्चन बन्धुतमः परः । इति वदन्तमवेक्ष्य पितुर्जनश्चरणयोरपतत्करुणं ब्रुवन् ॥ ३७॥ गतवति त्वयि नाथ समन्ततो गिरिगुहासु वनेषु नदीषु च । नपनियोगधराः परिबभ्रमर्न विविदश्च भवन्तमिहागतम ॥ ३८॥ इति निवृत्तगिरि स्वजने ततो नृपतिरित्यमुवाच मुदान्वितः ।
भवत एव मया परिवधितं परिगृहाण पुनस्तनयाशतम् ॥ ३९ ॥ हे पुत्र वरांग ! मैं तुम्हें पहिलेसे हो जानता था कि तुम्हीं मेरे श्रेष्ठ भानजे ही हो, तो भी तुम यहाँपर अपना कुल, नगर, आदि छिपाकर क्यों रहते थे? यह कहते समय महाराजका मुख हर्ष के कारण खिल उठा था, वे बड़ी त्वरासे आगे बड़े थे और उसको निकट-खींचकर छातोसे लंगा लिया था ।। ३५ ।।
कृतज्ञ-वारांग जब में वन-वन मारा फिरता था तथा कोई ठिकाना न था उसी समय सार्थपति सागरवृद्धिने मेरे ऊपर परम करुणा करके मुझे अपना लड़का बना लिया था। इसके उपरान्त आपने अपनो प्राणप्रिय पुत्रीका मुझसे व्याह करके आधा राज्य देकर मुझे राजाके महा पदपर स्थापित कर दिया है ।। ३६ ।।
इन कारणोंसे इस पृथ्वी पर कोई भी मेरा मित्र अथवा बन्धु-बान्धव आपसे बढ़कर नहीं है' जिस समय भावावेशमें युवराज वरांग यह सब कह रहे थे उसी समय उसकी ओर देख करुण वचन बोलते हुए वरांग महाराज देवसेन आदि गुरुजन आदि चरणोंपर गिर पड़े ।। ३ ।।
आत्मप्राप्तिका मार्ग कृतज्ञता हे प्रभो ! तुम्हारे खो जानेपर महाराज धर्मसेनकी आज्ञानुसार आपको खोजनेवाले व्यक्ति चारों ओर पर्वतों पर, गुफाओंमें, गहन वनोंमें तथा नदियों में आपको खोजते हुए घूमते रहे, किन्तु बड़े आश्चर्यको बात है कि वे यहाँपर आये हुए आपका पिता न लगा सके ।। ३८॥
जब सब सगे सम्बन्धी लोग उक्त वचनोंको कहकर चुप हो गये तो आनन्द विभोर महाराज देवसेनने स्नेहपूर्वक कहा था । 'हे कुमार! तुम्हारे निमित्तसे ही मेरे द्वारा पालो-पोसी गयीं सौ राजपुत्रियाँ हैं। इस समय तुम उनको भी ग्रहण करो॥ ३९ ॥ १. [ हृषित° ]। २. [ मे ]। ३. [ मा ]। ४. [ त्वमतिष्ठिपः ] ।
For Private & Personal Use Only
रामारावासाचा-ICIPALITaurus
[३८६ )
www.jainelibrary.org
Jain Education International