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विंशतितमः सर्गः
चरितम्
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वरतनोस्तुरगेण विनाशनं रिपुबलाच्च सुषेणपराभवम् । परनपस्य पुनः समराङ्गणं ह्यकथय सकल सकलार्थवित् ॥ ३०॥
प्रकटमास्स्व भवान्परिपालयन् जनपदं स्वपुरं निरुपद्रवम् । वराङ्ग
मम धुरंधरता च भवत्वथो जिगमिषामि सुहृद्व्यसनार्थ्यहम् ॥ ३१॥ इदमिह प्रहितं जनकेन मे त्वमभिपश्य गुणार्णव पत्रकम् । करपुटेन नवाम्बुरुहत्विषा समुपगृह्य पुनस्तदवाचयत् ॥ ३२ ॥ परिभवं द्विषतः पितृदुःस्थितिं वरतनोर्गमनं पितृराष्ट्रतः।। प्रतिनिशम्य च पत्रगतं त्वभूत्सलिलबिन्दुपरिप्लुतलोचनः ॥ ३३ ॥ नयनवारिपरिप्लुतमाननं हृदयवेपथुना सह वीक्ष्य च ।
अथ नपो ललिताख्यपुराधिपः प्रतिविबुध्य सुधीरनुमानतः ॥ ३४ ॥ आप्त जनोंके एकत्रित हो जाने पर उन्होंने उत्तमपुरमें घटीं समस्त घटनाओंको कुमार वरांगका घोड़े द्वारा हरण और नाश, नूतन युवराज सुषेणका शत्रुओं द्वारा पराभव तथा उसके बाद भी शत्रुका बढ़ते रहना आदि सब ही बातोंको विशदताके साथ उनकी सम्मतिके लिए उपस्थित कर दिया था। यद्यपि वे स्वयं भी समस्त कार्योंको समझते थे ।। ३०॥
कश्चिद्भटसे निवेदन हे कश्चिद्भट ! आप पूर्ण रूपसे इस राजधानी तथा पूरेके पूरे राज्यकी उपद्रवोंसे मुक्त होकर रक्षा करते हुए यहीं रहें। केवल मैं ही इस कार्यके भारको वहन करूंगा। मेरे मित्र तथा सम्बन्धो पर विपत्ति आ पड़ी है अतएव मैं उसके निग्रह हाथ बँटानेके लिए जाना ही चाहता हूँ॥ ३१ ॥
___ महाराज देवसेनके इस निर्णयको सुनते हो कश्चिद्भट बोल पड़े थे 'हे गुणसागर ? सामने रखा हुआ पत्र भी पिताजीने ही भेजा है आप उसे ध्यानसे देखिये।' नूतन विकसित कमलोंके समान कान्तिमान करपुटसे उठाकर महाराजने उस पत्रको फिरसे बाँचा था ।। ३२॥
पित-प्रेम पत्रमें लिखे हुए 'युवराज वरांगका पिताके देशसे लुप्त हो जाना, शत्रुके द्वारा पिताका अपमान, पिताकी अत्यन्त जटिल परिस्थिति इत्यादि बातोंको सुनते-सुनते वीरवर कश्चिद्भटकी आँखोंमें आँसुओंका पूर उमड़ आया था ।। ३३ ॥
स्वभावसे ही धीर-गम्भीर कश्चिद्भटकी आंखोंसे धाराप्रवाह रूपमें बहते हुए आँसुओंसे गीले मुख तथा तीव्र कम्पनसे चंचल वक्षस्थलको देखकर महामतिमान ललितपुरके अधिपतिने अनुमानसे उसे पहिचान लिया था ॥ ३४ ॥
११म°दुस्थितं. Jain Education Interatio
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