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________________ अधोऽधो नरका रुन्ध्रा अधोऽधस्तोत्रवेदनाः । अधोऽधोऽभ्यधिकायुष्का अधोऽधस्तु घनं तमः ॥१९॥ षष्ठसप्तमयोः शीतं शीतोष्णं पञ्चमे स्मतम् । चतुर्थेऽत्युष्णमुद्दिष्टं तेषामेव महोगुणाः ॥२०॥ नारकाणां च दुःखस्य तेषां शीतोष्णयोः पुनः । वर्णगन्धकृतीनां च उपमान्या न विद्यते ॥२१॥ मेरुप्रमाणोऽयःपिण्ड उष्णे क्षिप्तो यदृच्छया। विलीयते क्षणेनैव एवं तस्योष्णता मता ॥२२॥ तावत्प्रमाणोऽयःपिण्डः शीते क्षिप्तो यदृच्छया । सहसैव हिमीभावमुपयाति न संशयः ॥२३॥ जम्बूद्वीपं निमेषेण यो गन्तुं शक्तिमान्सुरः । षड्भिर्मासैव जेदन्तं महतो नरकस्य सः॥२४॥ वराङ्ग चरितम् पञ्चमः सर्गः पंक्तियोंके अन्तरालमें इधर-उधर खुदे विलोंको ही प्रकीर्णक कहते हैं। ऊपरके नरकोंकी अपेक्षा नीचे के नरक अधिक निर्दय और भयंकर हैं ।। १८ ।। नारको वातावरण ज्यों-ज्यों नीचे जाईयेगा त्यों-त्यों कष्ट और वेदनाको दिन दूना और रात चौगुना बढ़ता पाइयेगा, अवस्थाका भी यही हाल है क्योंकि नीचेके नरकोंमें ऊपरकी अपेक्षा बहुत बड़ी आयु है। नरकोंमें व्याप्त अन्धकार भी नीचे-नीचे धनतर और घनतम होता जाता है ।। १९ ।। सातवें और छठे नरकमें भयंकर शीत वातावरण है, पाँचमें नरक धूमप्रभामें क्रमशः अत्यन्त प्रखर शीत और उष्ण वातावरण है और चतुर्थ पृथ्वी अञ्जनापर दारुण गर्मीका ही साम्राज्य है। यह शीत और ताप किन्हीं बाह्य कारणोंसे नहीं है , बल्कि वहाँकी पृथ्वीकी प्रकृति ही उस प्रकार की है ।। २० ॥ इन नारकियोंपर वीतनेवाले दुखोंकी, भयंकर शीत और दारुण ताप-बाधाओंको, उनके रंग-रूप, गन्ध और आकृतियोंकी हजार प्रयत्न करनेपर भी दूसरी उपमा नहीं मिल सकती है ।। २१ ॥ उन नरकोंकी गर्मी ऐसी होती है कि यदि उसमें सुमेरु पर्वतके समान लम्बे, चौड़े और घने लोहे के पिण्डको यदि यों ही फेंक दिया जाय तो वह भी एक, दो मुहूर्त में नहीं अपितु क्षणभरमें पानी होकर बह जायेगा ।। २२ ।। शीतोष्ण बाधा ___ इसी लाखों योजन लम्बे, चौड़े और घने द्रवीभूत लोहेके महापिण्डको यदि शीतबाधायुक्त नरकमें उठाकर डाल दीजिये। तो निश्चित समझिये कि वह बिना किसी प्रयत्नके हो बिल्कुल हिमशिलाके समान हो जायेगा ऐसी भयंकर वहाँकी ठंड होती है ॥ २३ ॥ दैवी शक्ति सम्पन्न जो देव सम्पूर्ण जम्बूद्वीपको पलक मारनेके समयमें ही पार कर जाता है, वही देव यदि सबसे बड़े । नारकियोंके बिलमें घुस जाय तो लगातार चलते-चलते हुए भी उसे बिलके दूसरे किनारेतक पहुँचनेमें ही छह माह लग जायेंगे। इसीसे उनके क्षेत्रफलका पता लग जाता है ।। २४ ॥ १.[रौद्राः]। २.क उष्णक्षिप्तो । naikनामामामाचा Jain Education interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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